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शनिवार, 19 दिसंबर 2009

शहीद गाँव: कुछ स्मृति चित्र

राजस्थान के मरुकांतार क्षेत्र में वर्ष १९८४ में सेना के तोपाभ्यास हेतु महाजन फ़ील्ड फ़ायरिंग रेंज की स्थापना हुई तो चौंतीस गांवों को उजड़ना पड़ा. ये कविताएं विस्थापन की त्रासदी को सामुदायिक दृष्टिकोण से प्रकट करती है. कविताओं में प्रयुक्त मणेरा, भोजरासर, कुंभाणा उन विस्थापित गावों के नाम हैं जो अब स्मृतियों में बसे हैं.


(एक)
मरे नहीं हैं
शहीद हुए हैं
एक साथ
मरूधरा के चौंतीस गाँव
देश की खातिर।

सेना करेगी अभ्यास
उन गाँवों की जमीन पर
तोप चलाने का;
महफूज रखेगी
देश की सरहद।

क्या देश के लोग
उन गाँवों की शहादत को
रखेंगे याद ?

(दो)
गाड़ों में लद गया सामान
ट्रालियों में भर लिया पशुधन
घरों के दरवाजे-खिड़कियाँ तक
उखाड़ कर डाल लिए ट्रक में
गाँव छोड़ते वक्त लोगों ने,
मगर अपना कलेजा
यहीं छोड़ गए।

(तीन)
किसी भी कीमत पर
नहीं छोड़ूंगा गाँव
फूट-फूट कर रोए थे बाबा
गाँव छोड़ते वक्त।

सचमुच नहीं छोड़ा गाँव
एक पल के लिए भी
भले ही समझाईश के बाद
मणेरा से पहुँच गए मुंबई
मगर केवल तन से
बाबा का मन तो
आज भी
भटक रहा है
मणेरा की गुवाड़ में।

बीते पच्चीस वर्षों से
मुंबई में
मणेरा को ही
जी रहे हैं बाबा।

(चार)
घर नहीं
गोया छूट गया हो पीछे
कोई बडेरा
तभी तो
आज भी रोता है मन
याद करके
अपने गाँव को।

(पाँच)
तोप के गोलों से
धराशाई हो गई हैं छतें
घुटनें टेक दिए हैं
दीवारों ने
जमींदोज हो गए हैं
कुएँ
खंडहर में बदल गया है
समूचा गाँव,
मगर यहाँ से कोसों दूर
ऐसे लोग भी हैं
जिनके अंतस में
बसा हुआ है
अतीत का अपना
भरा-पूरा गांव.

(छह)
अब नहीं उठता धुआं
सुबह-शाम
चूल्हों से
मणेरा गाँव में।
उठता है रेत का गुब्बार
जब दूर से
आकर गिरता है
तोप का गोला
धमाके के साथ
तब भर जाता है
मणेरा का आकाश
गर्द से।
यह गर्द नहीं
मंजर है यादों का
छा जाता है
गाँव पर
लोगों के दिलों में
उठ कर दूर दिसावर से।

(सात)
उस जोहड़ के पास
मेला भरता था गणगौर का
चैत्र शुक्ला तीज को
सज जाती मिठाई की दुकानें
बच्चों के खिलोने
कठपुतली का खेल
कुश्ती का दंगल
उत्सव बन जाता था
गाँव का जीवन।
उजड़ गया है गाँव
अब पसरा है वहाँ
मरघट का सूनापन
हवा बाँचती है मरसिया
गाँव की मौत पर।

(आठ)
गाँव था भोजरासर
कुंभाणा में ससुराल
मणेरा में ननिहाल
कितना छतनार था
रिश्तों का वट-वृक्ष।
हवा नहीं हो सकती यह
जरूर आहें भर रहा है
उजाड़ मरुस्थल में पसरा
रेत का अथाह समंदर।
गाँवों के संग
उजड़ गए
कितने सारे रिश्ते।

(नौ)
कौन जाने
किसने दिया श्राप
नक्शे से गायब हो गए
चौतीस गाँव।
श्राप ही तो था
अन्यथा अचानक
कहाँ से उतर आया
खतरा
कैसे जन्मी
हमले की आशंका
हंसती-खेलती जिंदगी से
क्यों जरूरी हो गया
मौत का साजो-सामान?
हजार बरसों में
नहीं हुआ जो
क्योंकर हो गया
यों अचानक।

(दस)
अब नहीं बचा है
अंतर
श्मसान और गाँव में।
रोते हैं पूर्वज
तड़पती है उनकी आत्मा
सुनसान उजड़े गाँव में
नहीं बचा है कोई
श्राद्ध-पक्ष में कागोल़ डालने वाला
कव्वे भी उदास है।

(ग्यारह)
आज भी मौजूद है
उजड़े भोजरासर की गुवाड़ में
जसनाथ दादा का थान
सालनाथ जी की समाधि
जाळ का बूढ़ा दरखत
मगर गाँव नहीं हैं।

सुनसान थेहड में
दर्शन दुर्लभ है
आदमजात के
फ़िर कौन करे
सांझ-सवेरे
मन्दिर मे आरती
कौन भरे
आठम का भोग
कौन लगाए
पूनम का जागरण
कौन नाचे
जलते अंगारों पर।

देवता मौन है
किसे सुनाए
अपनी पीड़ा।