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सोमवार, 22 मार्च 2010

जुगाड़ से तो चल रहा है देश

व्यंग्य
जुगाड़ से तो चल रहा है देश !
डा. मदन गोपाल लढ़ा
गत दिनों अखबार के पहले पन्ने पर ‘अब नहीं दिखेंगे सडक़ पर जुगाड़’ खबर पढ कर झटका-सा लगा। मुश्किल यह है कि यह माननीय न्यायालय का फैसला है, जिस पर कुछ भी बोला जाना अनुचित है। मगर इस खबर ने मेरे जैसे कलम घिस्सुओं के मन में हजारों सवाल तो खड़े कर ही दिए हैं। जुगाड़ से ही तो देश चल रहा है। क्या जुगाड़ पर प्रतिबन्ध किसी भी कोने से उचित है? खैर उचित-अनुचित की छोडि़ए, मुझे तो यह असंभव-सा लगता है। हालांकि कानूनन जुगाड़ पहले से ही अवैध है। लेकिन भला हो हमारी पुलिस का जो देश के हित में इस कानून को ठंडे बस्ते में डालकर आँख बंद किए है। यह कोई आसान काम नहीं है। मुझे तो लगता है कि हमारी पुलिस सही अर्थों में गांधीवादी है, जो न तो बुरा देखने में यकीन करती है न ही बुरा सुनने में। अलबत्ता बुरा कहने के मामले में थोड़ी छूट लेती है जो समय की जरूरत भी है। तभी तो आए दिन जुगाड़ से होने वाले सडक़ हादसे पुलिस की निगाह में नहीं आते न ही हताहतों की चीख पुकार पुलिस को सुनाई देती है। रही बात कहने की, सो पुलिस की मर्जी हो तो बीस क्विंटल चारे से भरे जुगाड़ को बेरोकटोक जाने दे और जो मर्जी हो तो सीट बेल्ट नहीं लगाने पर आपका चालान काटकर डांट पिलादे।
अब बात जुगाड़ की। जीवन का ऐसा कौन सा क्षेत्र होगा जहाँ जुगाड़ की जरूरत न हो। जो जितना बड़ा जुगाड़ु वह उतना ही सफल। अब राजनीति को ही लीजिए। हमारे नेताओं की जुगत विद्या में पारंगतता की क्या होड़ । टिकट के जुगाड़ से शुरू हुआ राजनीति का सफर जुगाड़ के सहारे ही मंजिल तक पहुंचता है। वोट का जुगाड़ हो या पद का, पैसे का जुगाड़ हो या साधन-सुविधाओं का, राजनीति के अखाड़े में तो बिन जुगाड़ सब सूना-सूना है। इन दिनों तो सरकार बनाना भी जुगाड़ की करामात हो गया है। करोड़ों लोगों के चहेते अभिनेताओं के लिए सुन्दर नाक-नक्स व मधुर आवाज से कहीं बड़ी योग्यता जुगाड़ु होना है। अब वो जमाना गया जब आपकी शक्ल सूरत पर रीझकर कोई निर्माता-निर्देशक आपको अपनी फिल्म में मौका देकर ‘ब्रेक’ दे देता। निरी योग्यता के बलबूते तो आजकल बॉलीवुड में ‘क्लैप बॉय’ भी नहीं बना जा सकता। अलबत्ता किसी मुख्यमंत्री का बेटा, हॉटलों का मालिक अथवा अंडरवल्र्ड के डॉन की पर्ची हो तो बड़े पर्दे के दरवाजे आपके लिए खुले हैं। अभिनय ही नहीं गीत-संगीत में भी जुगत भिड़ाकर ही कोई जगह बना सकता है। आपकी सुविधा के लिए ‘रियलिटी शो’ के नाम पर जुगाड़ का हुनर दिखाने के बाकायदा मंच तैयार हो गए हैं। सरकारी नौकरी में जुगाड़ कला के जानकार के वारे ही न्यारे होते हैं। प्रमोशन पाना है, चाहे मन माफिक सीट, जुगाड़ तो बिठाना ही होगा। अफसर को पटाने के लिए उसकी बीवी की वक्त-बेवक्त की प्रशंसा व नित नए उपहारों से खुश रखना जुगाड़ कला के ही तो पैतरें है। धर्म जैसा क्षेत्र भी जुगाड़ के प्रभाव से अछूता नहीं रहा। घरबार छोड़ कर बाबा तो बन गए मगर जुगत विद्या छोडऩे से काम नहीं चलेगा। किसी टीवी चैनल पर प्रवचन नहीं आए तो भला बाबा कैसे ? प्रवचन के लिए लम्बे-चौडे शामियाने, भारी भीड़ , बड़े-बड़े हॉर्डिंग्स व मीडिया की मौजूदगी जुगाड़ का ही तो जादू है। साहित्य के संसार में भी जुगाड़ का महत्व कम नहीं है। साहित्य अकादमियों की सदस्यता हो चाहे साहित्यिक पुरस्कार, बिना जुगाड़ दुर्लभ ही समझिए।
अब बचा घर। सो घर ढंग चलाने के लिए भी जुगाड़ कला में दक्षता जरूरी है। मंहगाई के इस जमाने में भला कलम घिसकर या कोई छोटा-मोटा काम करके घर चल सकता है? घर बनाना हो या बेटी का विवाह करना हो, कर्जे का जुगाड़ करना ही पडता है। मेरे जैसों के महीने का आखिरी सप्ताह इधर-उधर से जुगाड़ करके ही बीतता है।
मेरा मानना है कि जुगत विद्या को सातवें वेदांग का दर्जा देकर विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल कर देना चाहिए ताकि इसे सरलता से सीखा जा सके । आप भी तो जुगाड़ के महात्म्य से अनजान नहीं होगें । सीने पर हाथ रखकर बताइए क्या जुगाड़ पर प्रतिबन्ध से देश ढंग से चल सकेगा?

शनिवार, 20 मार्च 2010

मदन गोपाल लढ़ा की राजस्थानी कविताएं

मदन गोपाल लढ़ा की राजस्थानी कविताएं

भाषा

खेत के रास्ते
मैंने सुनीं
ग्वाले के बांसुरी
बांसुरी से याद आई
कान्हा की बांसुरी
बांसुरी की भाषा को
मान्यता की नहीं जरूरत
राग-रंग, हर्ष और दुख की
होती सदैव एक ही भाषा.


बच्चे भगवान होते हैं!

बच्चा अनजान होता है
रीत-कायदा
कब जाने!
बच्चा नासमझ होता हैं
दुनियादारी
क्या समझे!
बच्चे नादान होते हैं!
बच्चे भगवान होते हैं


मन्नत

मैंने मांगा
सांवरे से
केवल और केवल
तुमको
तुम्हारे बहाने
सांवरे ने
सौंप दी मुझे
सारी दुनिया
सचमुच
अब मुझे
तुम्हारी तरह
अच्छी लगती है
यह दुनिया.


पाठशाला

तीस वर्ष पुरानी
दीवारें भी
पढी-लिखी है यहां
कान पक गए
अ अनार
आ आम की टेर सुनते
सातवें सुर में
वर्णमाला का बोलना
मंत्रों से करता है होड़.
यह पाठशाला
कैसे कम है
किसी मंदिर से ?


मेरा घर

दीवार से सटाकर रक्खी है
पुरानी चारपाई
झूले खाती मेज पर
लगा है किताबों का ढ़ेर
दीवारों पर लटक रहे हैं
नए-पुराने कलैंडर
आले में पड़ा है रेडियो
खूंटियो पर टंगे है कपड़े.
परंतु
आठ बाई दस फ़ुट का
मेरा यह कमरा
साधारण तो नहीं है
ब्रह्मा होने की
मेरी ख्वाहिशों का
साखी है.
इसकी आबो-हवा में
पसरी हुई है
कई अनलिखी
कालजयी कविताएं
जो मुझे तलाश रही हैं.

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अनुवाद- स्वयं कवि द्वारा