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बुधवार, 24 नवंबर 2010

लोक के आलोक : नानूराम संस्कर्ता

लोक के आलोक : नानूराम संस्कर्ता

(पुण्यतिथि २५ नवम्बर पर विशेष)

धुनिक राजस्थानी साहित्य के पुरोधा ख्यातनाम साहित्यकार नानूराम संस्कर्ता सही मायने में लोक के आलोक थे. 21 जुलाई1918 को खारी में जन्मे नानूराम संस्कर्ता ने जीवन पर्यन्त गांव में रहकर साहित्य-साधना की. उनकीरचनाएं ग्रामीण जिन्दगी के सुख-दुख तथा आकांक्षा व अवरोधों का प्रामाणिक दस्तावेज है.देहात की दुनिया का शायद ही कोई ऐसा कोना बचा होगा , जो उनकी पारखी निगाहों से छूट गया हो.यह उनका अनुभव किया हुआ सच है, जो बिना किसी लाग-लपेट उनकी कलम से प्रगट हुआ है.अपने रचना संसार की तरह उनका व्यक्तिगत जीवन भी निर्मल एवं सरल रहा.शहरी जीवन की भाग-दौङ उनको कभी रासनहीं आई.बीकानेर जिले के काळू गांव में रहते हुए उन्होंने शिक्षा वसाहित्य की सेवा में अपन जीवन समर्पित कर दिया.राजस्थानी में 11 काव्य कृतियों, 7 कथा संग्रह तथा हिन्दी में 5 कवितासंग्रह , 3 कहानी संग्रह व 2 शोध ग्रन्थो के रूप मे उनकी सहित्यिक विरासत अत्यन्त समृद्‍ध है. उनका शोध ग्रन्ध ‘राजस्थान का लोक साहित्य’ बेजोङहै. ‘कळायण’ राजस्थानी प्रकृति काव्य में सिरमोर रचना है. उनका ‘ग्योही’ कथासंग्रह राजस्थानी कहानी की यात्रा में मील का पत्थर माना जाता है.काळू में 25 नवम्बर 2004 को अपनी आत्मा से पदार्थ उतार देने वाले मनीषी साहित्यकार नानूराम संस्कर्ता का पुण्य-स्मरण करते हुए प्रस्तुत है उनकी एक कविता-
‘आज हरिया खेतां में छांवलो आवै
आभै लील गलै, वदळां री नौका कुण चलावै?
आज भंवरा फूलां नीं बैठै; थांरी जोत किरणां में
मतवाळा ऊंचा उडै चढै!
चातकङा रा जोङा, सरिता रै सारै कियां भेळा होर्या है?
साथीङां आज म्हैं घरै नीं जावूंला
आज म्हैं आभै झाङ, विश्व विभव लूंटणो चावूं.
आज समदरियै री उछाळ में झाग वणावूं;
झंझवात-हरखीली हंसी हंसै!
आज बेवजै मुरली वाजै-सारो दिन म्हैं वै में ही लगावूंला!

मदन गोपाल लढ़ा

1 टिप्पणी:

सुनील गज्जाणी ने कहा…

नमस्कार !
इन भान्त री विभूतिया ने नमन है ,
सादर