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रविवार, 22 नवंबर 2009

हाथ में गुलाब का फूल (राजस्थानी कहानी)

हाथ में गुलाब का फूल

मूल- श्यामसुन्दर भारती
अनुवाद- डा. मदन गोपाल लढ़ा


मरा। कौन जाने कितने वर्षों से बन्द पड़ा! न जाने कैसा-कैसा और क्या-क्या सामान। सामान नहीं, कबाड़ से भरा हुआ। वर्षों पुरानी किताबें और ये चीजें, और वे चीजें और आलतू-फालतू न जाने क्या-क्या! मुँह तक ठसाठस भरा हुआ। इतना सामान कि पैर धरने को भी जगह नहीं। ताक ऊपर धूल की परतों पर परतें जमी हुई। यह मोटी-मोटी थर आई हुई। नौकरी और फिर दुनिया भर की इतनी उलझनने कि एक पल भी सांस लेने की फुरसत नहीं, कि थोड़ी देर रुक कर विश्राम किया जा सके, कि कमरे के ताक को संभाला जा सके कि झाड़-पौंछ हो सके किसी दिन। बाहर -भीतर झांक कर देखा जा सके अन्धेरी कोटड़ी में, कि थोड़ी देर ठहरा जा सके, कि झांका जा सके किसी दिन खुद के अन्दर। नहीं-नहीं, इतनी फुरसत और वह भी आज के युग में!और यूं ही हर बार कि फिर कभी, कि बस फिर कभी ! इसी ऊहापोह में प्रत्येक दिन, कि एक दिन निश्चित करना है, कि इस बार, और उसी दिन करना ! पर नौकरी, बीबी -बच्चे, घर-परिवार, संगी-साथी, मिलने जुलने वाले और यहां के तथा वहां के और ये तथा वे न जाने क्या-क्या ? मतलब की उलझनें ही उलझनें। ठहराव को एक पल भी नहीं। व्यवधान इतने कि ठहरने अथवा रुकने का नाम भी नहीं। इसी तरह की उलझनों की ऊहापोह में वक्त अनंत पंखो से उड़ता रहा फुर्र-फुर्र ! मतलब कि अतीत के दर्पण पर धूल ही धूल ! नतीजन खुद पर तीव्र गुस्सा, झुंझलाहट और एक अनजान अनमनापन। और फिर मन मार कर एक दिन समय निकालना। मतलब कि साफ फालतू बोझ जैसे लगने वाले अनचाहे काम के लिए छुट्टी का एक कीमती दिन शहीद करना और झाड़नें-पौंछनें और सब कुछ इधर-उधर बिखेरने के लिए पालथी मार कर जम जाना।चारों तरफ पुरानी किताबें और यह, और वह और न जाने क्या-क्या ! आलतू-फालतू और कबाड़ से जूझने में मगन। कभी एक -एक चीज की बड़ी सावधानी से जांच परख, तो कभी बस एक उड़ती सी नजर। कहीं-कहीं थोड़ा रुककर अतीत को पढने की जुगत। कुछ ठीक-ठीक याद नहीं, एक धुंधली सी झलक, एक समृति की चमक। तो मगज में एक हलचल तथा अचरज कि अच्छा, यह ? और यह भी ? कि मैं तो बिलकुल भूल चुका। मगज पर जोर देकर याद करके ही चेष्टा कि कब? कि किस घड़ी? फिर थोड़ी देर याद करने की खपत करने के बाद तसल्ली कि अरे हां , यह तो तब, और यह उस घड़ी, और उस वक्त। पर सब कुछ शायद या अगर -मगर। और इस तरह धीरे-धीरे........धीरे-धीरे यादों की बन्द कोटड़ी में सरकता जाना, धीरे-धीरे......धीरे-धीरे पिछले दिनों के पीछे..........और पीछे।फिर तो एक-एक चीज को बड़ी सतर्कता से जांचना-परखना, तथा नजरों को बाहर निकालना कि अरे हां...... ये तो तब की....... और यह जब की ! कि इसी बीच अचानक निगाहों का कुछ किताबों पर ठहर जाना। और देखते हुए दुखी हो जाना। किताबों का खासा हिस्सा दीमक चाट कर साफ कर चुके। तो बहुत गहरे तक मन में पीड़ा के बुलबुलों का उठना, तो गहरे मोह और घनी पीड़ में पगी बेबसी से उन किताबों की ओर देखना और फिर देर तक अपलक देखते जाना, देखते ही जाना। और आखिरकार भारी मन से उन किताबों को कचरे की टोकरी में बाहर फैंकने के लिए डाल देना। और इसके साथ बाकी बची हुई चीजों की झाड़-पौंछ में लग जाना। उनकी जांच परख में खो जाना कि उनमें डूबने के सम्मोहन में सो जाना। उसी वक्त अचानक कुछ याद आते ही एक झटके के साथ झिझक कर जागना और जैसे बिजली की गति से लपक कर अभी-अभी कचरे की टोकरी में डाली किताबों में से एक किताब को वापस उठाना, जैसे कि वह दुनिया की सबसे अनमोल किताब हो।क्या कुछ ? पर शायद कुछ था जो वक्त व दीमकों द्वारा चाटी हुई किताबों के साथ कचरे की टोकरी में फेंक दिया गया था, जो अतीत की गहरी परतों और सालों साल के घटाटोप कोहरे की गहरी कालिमा के बावजूद मानो यादों के आकाश में काले बादलों में बिजली की चमक की एक पतली सी रेखा की तरह अचानक कौंधा था। जैसे बड़ी सावधानी से , धीरे से उस किताब को पकड़ना और बड़े जतन से एक-एक पन्ने का उलट-पलट कर ध्यान से देखना.........कि दीमक झाड़ने की जुगत में किताब का हाथ से छूट कर नीचे गिर जाना....नीचे गिरते ही किताब का खुल जाना.... कि वक्त की मार से किताब के सड़े-गले पन्नों के बीच से सिमसिम का खुलना........एक सूखा हुआ गुलाब का फूल .......डाली और पत्तियों समेत ......और नजरों का उसी पर ठहर जाना.........जड़ हो जाना।समूची चेतना अपनी एकल अवस्था में एक बिन्दु पर टिकी हुई-न इधर , न उधर ,न आस, न पास । दृष्टि थमी हुई तथा एक जगह जमी हुई । डाली पत्तियों समेत सूखा हुआ गुलाब का फूल। बस, फूल ! कि अचानक डाली हरी होने लगी। पंत्तियां ताजी, और फूल जैसे आज ही खिला हो ! और तभी फूल से सुगन्ध आने लगी। सुवास नथुनों से होती हुई अन्दर तक उतरने लगी और एकदम खिला हुआ गुलाब का फूल। अपनी मदभीनी खुशबू बिखेरता हुआ। ठीक वैसा ही, जैसा कि उस दिन रेशमी रुमाल में लपेट कर उसने प्रीत की पहली निशानी के रूप में दिया था। उस सुहाने पल-क्षण में पूरी तरह डूबी मनगत, दोनों के नयनों में प्रीत के लाल-गुलाबी डोरे। बस, साक्षात वही पल ! प्रीत की हिलोरें भरता हुआ अथाह सागर। चिमटी में डाली, डाली पर हरी पंत्तियां , ऊपर प्रीत की मनमोहक खुशबू बिखेरता मुस्कराता हुआ गुलाब का फूल !

राजस्थानी कहानी

नीम न मीठो होय

मूल राजस्थानी कहानी : रामेश्वर गोदारा 'ग्रामीण'

लेकिन बापू के सामने क्या कहेगी। बड़े साब से कैसे बता पाएगी वह सब, जो उसके साथ हुआ। केवल सलवार दिखाने से ही साब समझ जाएंगे। साब उसे न्याय दिलाएंगे। उस दरिन्दे को पकड़ कर जेल में डाल देंगे। उसे न्याय मिल जाएगा। साब बड़े आदमी हैं। गरीबों की भी सुनेंगे। वे बिकने वाले नहीं है। थानेदार की तरह वे सरपंच की नहीं सुनेंगे।अन्दर बैठे साब ने उनको बाहर बैठकर इंतजार करने के लिए कहा है। अन्दर कोई जरूरी खुसर-फुसर चल रही है। दोनों बाप-बेटी बाहर खड़े नीम तले आकर फ्रीज हो गए हैं। नीम की हरियाली पीलेपन से दबी जा रही है। हवा बंद है। उन दोनों के बीच पसरा हुआ मौन अंगड़ाई तोड़ रहा है। लड़की जवान है। सोलह बरस की। बाप बूढ़ा है। एकदम चरमराया हुआ। बूढ़े के चेहरे पर झुर्रियों का रामराज्य है और इस रामराज्य की बॉडीगार्ड बनी हुई डाढ़ी इधर-उधर मुस्तैद खड़ी है। बूढ़े की गरदन के दोनों तरफ दो पिल्लर जैसी नसें तनी हुई खड़ी हंै। शायद इन पिल्लरों के भरोसे ही बूढ़े का सिर अपनी जगह मौजूद है। इसी सर में कीड़े कुलबुला रहे हैं। ये कीड़े पिछले तीन-चार दिनों से उसे कच-कच काटते चले आ रहे हैं। बूढ़ा जब भी इन कीड़ों को बाहर निकाल फैंकने के लिए सर झटकता है तब कीड़े सांप बनकर उसके भेजे में घूमने लगते हंै। इन सांपों को मारने के लिए बूढ़े के पास कोई साधन नहीं है लेकिन फिर भी वह इनका सामना करने की सोचता है। वे सांप फण तानकर फुंफकारते हैं। उसे बार-बार डसते है लेकिन बूढ़ा मरता नहीं। उसे दिल का दौरा नहीं पड़ता। इस जहर से बूढ़े का चेहरा उस मरुस्थल जैसा बन गया, जिसके झाड़-झंखाड़ों को भेड़-बकरियों ने चर लिया हो। बूढ़े की धंसी हुई आंखों में पानी तो है लेकिन सपने पथरा गए है। वे सारे सपने जिनका ताना-बाना बूढ़े ने आज तक बड़े जतन से बुना था अब चदरिया बुनने से कन्नी काट रहे हैं। लड़की सलवार-कुरता पहने सलीके से औकडू बैठी है। बापू के ठीक सामने। उसके हाथ में नीम का तिनका कैद है। वो उसे धरती पर चलाए जा रही है-बेतरतीब। कुछ आड़ी-तिरछी लकीरें बन रही हैं, मगर कोई चित्र नहीं बन पाता। चित्र तो बेचारी लड़की की कल्पनाओं में भी नहीं है। लड़की एक क्षण के लिए नजर उठाकर बापू की ओर देखती है। बापू कहीं गहरे डूबे हुए है। लड़की सोचती है कि वह बापू के लिए बूढ़ापे की लाठी तो नहीं बन पाई, उलटा उनकों ही लंगड़ा कर डाला। अब वे ज्यादा दिन जी नहीं पाएंगे। यदि वह नहीं होती, तो बापू आधी मौत नहीं मरते। तभी उनके बीच नीम का एक पत्ता आकर गिर जाता है। एक बार दोनों यूं ही उसे देख भर लेते है। पत्ते पर उनकी किस्मत लिखी हुई नहीं है। पत्ते से ध्यान हटते ही दोनों बाप-बेटी फिर एक दूसरे को देखते हैं लेकिन पल भर में ही ध्यान हटा लेते हंै। दोनों की हिम्मत जवाब दे चुकी है। लड़की बापू से आंख नहीं मिला सकी, तो उसने सीधी सड़क पर देखना शुरू कर दिया। दोपहर की तेज धूप में सूनी पड़ी सड़क उसे विकराल काली नागिन-सी लहराती नजर आई। लू से उसे ऐसा लगा, जैसे वह नागिन लोटपोट खाते हुए ऊपर-नीचे होकर सांस ले रही है और इसी तरफ आ रही है। लड़की डर गई। उसे लगा, मानों सड़क उसे निगलना चाहती है। उसने सड़क से ध्यान हटा लिया तथा सामने वाले दरवाजे की ओर देखा। वहां संतरी पहरा लगा रहा था। जबसे वह यहां आई है तब से संतरी उसे ताक रहा है। तंग आकर लड़की ने अपना ध्यान नीम तक ही समेट लिया। नीम के नीचे बापू का उदास चेहरा पड़ा है- भूखे बैल जैसा। वो बापू का चेहरा देर तक नहीं देख पाई। उसकी हिम्मत ने जवाब दे दिया। उसे बापू पर दया आ रही है। वो सोचने लगी-वह बापू से बात करेगी। परन्तु क्या? बापू क्या सोच रहा है। वह कब से मुर्दे की तरह बैठा है। उसने एक बार फिर बापू के चेहरे को देखा। बोलना चाहा लेकिन बोल नहीं पाई। अपना ध्यान बंटाने की गरज से उसने ऊपर देखा। ऊपर नीम के फैले हुए डालों को देखकर लड़की ने सोचा- कहीं यह नीम टूट जाए और वह इसके नीचे दबकर मर जाए। फिर उसे बापू को अपना चेहरा कभी दिखाना नहीं पड़े। वह जीवित रहकर भी क्या करेगी? कैसे दिखाएगी बापू को अपना काला मुंह। उसने मन ही मन कहा- हे भगवान, यह नीम मेरे ऊपर गिरा दे। लेकिन नीम पर भगवान नहीं है। नीम पर खुद उदासी नाच रही है। उसी उदासी का एक पीला-सा घुंघरू उनके बीच आकर गिर जाता है। दोनों अचानक वर्तमान में आकर कुछ क्षणों के लिए उसकी ओर देखते है। दोनों में कातरता कुतर-कुतर कर रही है, इधर बेचैनी ब्याज-सी बढ़ रही है। बूढ़े ने इधर-उधर देखकर अपनी कातरता को दबाया और जेब से चिलम-तम्बाकू निकाल कर पान जचाया। फिर खड़ा होकर अगल-बगल से पांच-सात पत्ते और मुट्ठी भर कचरा चुग कर ले आया। आग जलाकर उसने अंगारों को चिलम में डाल लिया और दम भरकर खींचने लगा। कई देर तक वह सब कुछ भूलकर चिलम के धूंए में जीवन के राग को ढूंढऩे का प्रयास करता रहा। चिलम से बूढ़े के ग्लूकोज-सी चढ़ गई। उसमें ताकत का संचार हुआ। उसने एक-दो बार संतरी की तरफ देखा। बूढ़े के मन में आया कि उससे बात करके देखे। शायद काम बन जाए। लेकिन बात कैसे करें, यदि उसने झिड़क दिया तो। ऐसा सोचते ही बूढ़े की हिम्मत टूट गई। लड़की ने बापू से आंखे बचाकर अपनी झोली में पड़े थैले में देखा। उसकी पीड़ा जाग उठी। सलवार अब भी बदरंग पड़ी है। उसमें लगा हुआ खून अब उस दिन जैसा लाल नहीं, मटमैला हो गया। धरती पर गिरे सूखे चीड़ जैसा। लड़की की सोच साकार होने लगी। आज वह बड़े साब को सलवार दिखाएगी। कहेगी... लेकिन बापू के सामने क्या कहेगी। बड़े साब से कैसे बता पाएगी वह सब, जो उसके साथ हुआ। केवल सलवार दिखाने से ही साब समझ जाएंगे। साब उसे न्याय दिलाएंगे। उस दरिन्दे को पकड़ कर जेल में डाल देंगे। उसे न्याय मिल जाएगा। साब बड़े आदमी हैं। गरीबों की भी सुनेंगे। वे बिकने वाले नहीं है। थानेदार की तरह वे सरपंच की नहीं सुनेंगे। लड़की ने थैले में पड़ी सलवार को हाथ से नीचे छिपाने की सोची, लेकिन बापू के देखने के डर से विचार बदल दिया। उदासी से घिरा हुआ बूढ़ा कहीं खोया हुआ-सा बैठा है। अचानक उसका ध्यान अपनी धोती की ओर चला जाता है। धोती जगह-जगह से फटी हुई है। फटी धोती को उसने कई जगह गांठ बांध कर जोड़ रखा है। पहनने लायक नहीं रही, लेकिन फिर भी उसने पहन रखी है। धोती से भी बदतर हाल है उसके कुरते का। कुरते की एक बाजू गायब है। बचे हुए कुरते पर ढेर सारे पैबंद लगे है। बूढ़ा सोचता है कि साब के सामने इन कपड़ों में जाएगा, तो उनको कितना अटपटा लगेगा। क्या सोचेंगे वे। यह सब देखने से पहले तो उसे मर जाना चाहिए था। उसकी इज्जत पर फटे हुए कपड़ों से क्या फर्क पड़ेगा। जब इज्जत ही फट गई, तो कपड़ों का क्या? पैबंद लगे हुए शरीर को कौन अपनाएगा? कहीं उसकी बेटी कुंवारी तो नहीं रह जाएगी। नीम पर बैठे कौवे की कांव-कांव ने उसकी विचार शृंखला को तोड़ दिया। तभी संतरी की पथरीली आवाज उसके कानों से आ टकरायी -'ओय बूढ़े! आजा डी.एसपी. साब बुला रहे है। बूढ़ा इसी का इंतजार कर रहा था। उसकी मुराद पूरी हो गई। एकबारगी तो उसे लगा कि उसके अन्दर कहीं चूसे के बच्चे नाच-गा रहे हैं। दिल मे खुशी समा नहीं रही थी। उसने सोचा कि उसे न्याय मिल जाएगा। सब कह डालेगा रो-रोकर। बूढ़े के घुटनों में घोड़े जैसी ताकत आ गई। लड़की ने हाथ का तिनका फेंक कर जमीन पर खींची लकीरों को पांव से मिटाया, थैला सम्भाला तथा बापू के पीछे-पीछे चल पड़ी। चलते हुए उसने एक बार फिर थैले में सरसरी नजर से देखा। सलवार अब भी बदरंग है। गेट में घुसते वक्त संतरी ने फिर उनको घूरा, लेकिन अपनी सोच पर सवार बाप-बेटी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। दफ्तर में प्रवेश करते ही बूढ़े ने दण्डवत किया। साब ने उनकों कुर्सियों की ओर बैठने के लिए इशारा किया, लेकिन वे कुर्सियों की बजाय साब के पांवों में नीचे ही बैठ गए।'हां तो बोलो?'- एक भारी भरकम आवाज बूढ़े के कानों में आ फंसी। 'साब बोलने लायक तो उसने छोड़ा ही नहीं। अब न्याय आपके हाथों में है।'- एक कांपती गुहार बूढ़े के कंठों से निकली। 'बोलो क्या चाहते हो। कहो तो बोरी दो बोरी गेहूं दिलवा दूं। अकाल ठीक से कट जाएगा।' साब की बात सुनते ही बूढ़े की उम्मीदें आंखों की बाढ़ में बह गई। सारे सपने सफेदे की लकड़ी की तरह टूट गए। पैरों में बर्फ जमने लगी। उठते वक्त वो लकवा मारती जुबान से इतना ही फूट पाया- 'गेहूं और इज्जत में बहुत फर्क होता है साब, कभी वक्त आए, तो लेकर देख लेना।' लड़की अपनी आशाओं की अर्थी कंधों पर उठाए बापू के पीछे चल पड़ी। वह अब भी उदास थी और सलवार बदरंग। नीम तले गुजरते बूढ़े ने एक बार फिर पीछे मुड़कर देखा। नीम पहले की तरह खड़ा है, जिस पर सुनेड़ अपना लहंगा बिछाए बैठी है- खामोश!
अनुवाद: डॉ. मदनगोपाल लढ़ा

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

मदन गोपाल लढ़ा की राजस्थानी कविताएं

कविता से ज्यादा
कौन कहता है
मैंने कुछ नहीं लिखा
इन दिनों.

कविता में शब्द होते हैं
प्राण
जीवन का आधार.

मैंने रचा है
जीवन !

अब सोच
मेरा रचाव..
कविता से
कुछ ज्यादा ही होगा.


कविता के आस-पास
दोस्त कहता है-
बावरे हो गए हो क्या
क्या सोचते हो
अकेले बैठे
आओ घूमने चलते हैं
गुवाड़ में.

कैसे समझाऊं
गुवाड़ तो गुवाड़
मैं तो घूम लेता हूं
समूची सृष्टि में
कविता के इर्द-गिर्द
अकेले बैठे-बिठाए.


नहीं है भरोसा शब्दकोष का
कैसे भरोसा करूं
शब्दकोष का

जरूरी नहीं है
कि शब्द का अर्थ
असल जिन्दगी में भी
वही हो
जैसा लिखा होता है
शब्दकोश में.

आपके लिए
हर्ष का मतलब
उत्सव हो सकता है
लेकिन मेरे लिए
इसका अर्थ
फ़गत रोटी है.
आशा का मतलब
मेरे संदर्भ में
इंतजार है
जो आपको
किसी भी शब्दकोष में
नहीं मिलेगा.

शब्दकोष की तरह
नहीं है मेरा जीवन
अकारादि क्रम में
बिखरा हुआ है
बेतरतीब
शब्द पहेली की तरह.


स्मृति की धरती पर
अनजान मार्ग परचलते हुए
याद आते हैं
कई चेहरे.

जिनके सच की
साख भरती है स्मृति
सबूत है शब्द
उनके वजूद का.

डग-मग डोलता जीव
हृदय के आंगन में
भटकता है
पीछे भागती है
एक अप्रिय छाया
बेखौफ़.

खुद से भागता जीव
अंतस की आरसी में
तलाशता है
अनजान चेहरे
और बांचता है
स्मृति की धरती पर
जीवन के आखर.


रचाव
मैं एक भाव
बीज रूप शाश्वत
तुम्हारे अर्पण.

तुम मेरी भाषा
भाव मुताबिक गुण
संवार - संभाल.

हमारा रचाव
जैसे मंत्र
जैसे छंद
जीता-जागता काव्य


अबके रविवार
सोम से शनि तक
सिटी बस के पीछे भागते
सेंसेक्स के उतार-चढ़ाव की
गणित के साथ सर खपाते
कंप्यूटर के की-पेड से
उलझते
तंग आ गया हूं मैं
बुरी तरह,
अबके रविवार
मैं देखना चाहता हूं
पुराने एलबम के फोटोग्राफ़
बांचना चाहता हूं
कॊलेज जीवन की डायरी
और तिप्पड़ खाट लगाकर
चांदनी रात में
सुनना चाहता हूं रेडियो.


तुम्हारे मिलने का मतलब
पहली नजर में
तुम्हारे लिए
मेरे हृदय में
जन्मी एक चाह
कैसे ही हो
तुमसे जान-पहचान.

कैसी मुलाकात है यह
ओ मेरी जोगन !
ज्यों-ज्यों
मैं जानता हूं तुमको
खुद को भूलता हूं
अंतर की अंधेरी सुरंग में
उतरता हूं.

सच बता !
तुम्हारे मिलने का मतलब
कहीं मेरा खोना तो नहीं है.


नहर
नहर पहचानती है
अपनी हद
वह न तो नदी है
न ही समुद्र
सपना भी नहीं पालती.

नहर जानती है
माप-जोख की जिंदगानी
बारह हाथ चौड़ी
पांच हाथ गहरी
सात रोजा बारी
और टेल का सूखापन
उसकी मान-मर्यादा है.

कमजोर घर की
भंवरी-कंवरी है नहर
बचपन में ही
हो जाती है सयानी
उम्र भर पचती है
हरियल पत्तों से
ढकने के लिए
उघाड़े धोरों को.


एक बुरा सपना
वह लपर-लपर करके
बूक से
गर्म रक्त पी रही है
अंधेर घुप्प में
बिजली की तरह
चमकती है उसकी आंखें
मौन में सरणाट बजती है
उसकी सांस
मैं अकेला
डर से कांपता
कभी उसे देखता हूं
कभी हाथ में
इकट्ठा की हुई कविताओं को.


इंतजार
अब छोडिए भाईजी !
किसे परवाह है
आपके गुस्से की
इस दुनिया में.

मिल सको तो
एकमेक हो जाओ
इस मुखोटों वाली भीड़ में
या फ़िर
मेरी तरह
धार लो मौन
इस भरोसे
कि कभी तो आएगा कोई
मेरी पीड़ा परखने वाला
आए भले ही
आसमान से.


यकीन
तुमसे प्रेम करते वक्त
कब सोचा था मैंने
कि इस तरह
बिखर जाएगा
हमारे सपनों का संसार.

आज भी
याद के बहाने
मैं देख लेता हूं
मन के किसी कोने में
उस दुनिया के निशान.

मुझे यकीन है
कि तुम भी
कभी-कभार तो
जरूर संभालती होंगी
उस संचित सुख को
इसी तरह.


आओ तलाशें वे शब्द
वेद कहते हैं
इस सृष्टि में
अभी तक स्थिर है
वे शब्द
जिनसे रचे गए मंत्र
युगों की साधना से.

ओ मेरे सृजक !
आओ तलाशें
उन शब्दों को
पहचानें
उनके तेज को
उतारें
उन मंत्रों की आत्माओं को
हमारी कविता में
साधे संबध
उनकी गूंज से.

फ़िर देखना
हमारी कविता
कम नहीं होगी
किसी मंत्र से.


यादों का समुद्र
सचमुच
बहुत अच्छा लगता था
दोस्तों के साथ
तुमसे नेह का
बखान करते
सारी-सारी रात.

यह जुदा है
कि आज
मुंह पर लाना भी
पाप समझता हूं
वे कथाएं.

मगर मेरा मन
अब तक नहीं भूला है
उन यादों के समुद्र में
गोता खाने का सुख.


प्रीत के रंग
झूठ नहीं कहा गया है
कि प्रीत के
रंग होते है हजार.

उस वक्त की फ़िजां में
मैं सूंघता था
प्रीत की खुशबू
रातों रास करता
सपनों के आंगन
हृदय रचता
एक इन्द्रधनुष.

बदले हुए वक्त में
आज भी
मेरे सामने है
प्रीत के नए-निराले रंग
चित्र जरूर बदल गए हैं.

शायद
इस बेरंग होती दुनिया को
रंगीन देखने के लिए
जरूरी है
प्रीत रंगी आंखे.



मेरे हिस्से की चिंताएं
मुझे सवेरे उठते ही
चारपाई की दावण खींचनी है
पहली तारीख को अभी सतरह दिन बाकी है
पर बबलू की फ़ीस तो भरनी ही पड़ेगी.
पत्नी के साथ रिश्तदारी में हुई गमी पर जाना है
कल डिपो पर फ़िर मिलेगा केरोसीन तेल
मैंने यह भी सुना है कि
ताजमहल का रंग पीला पड़ रहा है इन दिनों
सिरहाने रखी किताब से मैंने
अभी आधी कविताएं ही पढ़ी है.


प्रेम पत्र : पांच चित्र

(एक)
तुम्हारा प्रेम पत्र
मैंने संभाल रखा है
ओरिये की संदूक में.

रोज सुबह देखता हूं
प्रीत की वह अनमोल निशानी
चाव से बांचता हूं
प्रेम के आखर
अचानक हरा हो जाता है
समय का सूखा ठूंठ
अंतर में उतरने लगती है
मधरी-मधरी महक.

तुम्हारा प्रेम पत्र
समुद्र बन जाता है
स्मृति के आंगन में.

(दो)
रेशमी रुमाल में लपेटकर
जिस तरह
तुमने मुझे सौंपा था
पहला प्रेम-पत्र
आज भी लगता है मुझे
सपना सरीखा.

कभी-कभार
एक सपने में ही
गुजर जाती है
समूची जिंदगानी.

(तीन)
तुम्हारे प्रेम पत्र में
अब तक बाकी है
तुम्हारे स्पर्श की सौरभ.

आखर की आरसी में
मैं चीन्हता हूं
तुम्हारा चेहरा.

प्रीत का पुराना पत्र
एक इतिहास है
अपने-आप में

(चार)
पुराना कागज
पोच गया
फ़ीका पड़ गया
आखरों का रंग
प्रीत की पहली पाती पर
जम गई
वक्त की गर्द.

किंतु आज भी है
तुम्हार इंतजार !


(पांच)
समझदारी है
फ़ाड़ कर जला देना
पुराने प्रेम-पत्रों को
जो चुगली कर सकते हैं
उस प्रेम की.

मगर कैसे मिटाऊं
मन की पाटी लिखे हुए
प्रीत के आखरों को
जो कविता के बहाने
खुदबखुद बताते रहते हैं
वे कथाएं.

अनुवाद : स्वयं
संपर्क- १४४, लढ़ा-निवास, महाजन, जिला- बीकानेर (राजस्थान), भारत
पिनकोड-३३४६०४ मो.-०९९८२५०२९६९
madanrajasthani@gmail.com