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बुधवार, 24 नवंबर 2010

लोक के आलोक : नानूराम संस्कर्ता

लोक के आलोक : नानूराम संस्कर्ता

(पुण्यतिथि २५ नवम्बर पर विशेष)

धुनिक राजस्थानी साहित्य के पुरोधा ख्यातनाम साहित्यकार नानूराम संस्कर्ता सही मायने में लोक के आलोक थे. 21 जुलाई1918 को खारी में जन्मे नानूराम संस्कर्ता ने जीवन पर्यन्त गांव में रहकर साहित्य-साधना की. उनकीरचनाएं ग्रामीण जिन्दगी के सुख-दुख तथा आकांक्षा व अवरोधों का प्रामाणिक दस्तावेज है.देहात की दुनिया का शायद ही कोई ऐसा कोना बचा होगा , जो उनकी पारखी निगाहों से छूट गया हो.यह उनका अनुभव किया हुआ सच है, जो बिना किसी लाग-लपेट उनकी कलम से प्रगट हुआ है.अपने रचना संसार की तरह उनका व्यक्तिगत जीवन भी निर्मल एवं सरल रहा.शहरी जीवन की भाग-दौङ उनको कभी रासनहीं आई.बीकानेर जिले के काळू गांव में रहते हुए उन्होंने शिक्षा वसाहित्य की सेवा में अपन जीवन समर्पित कर दिया.राजस्थानी में 11 काव्य कृतियों, 7 कथा संग्रह तथा हिन्दी में 5 कवितासंग्रह , 3 कहानी संग्रह व 2 शोध ग्रन्थो के रूप मे उनकी सहित्यिक विरासत अत्यन्त समृद्‍ध है. उनका शोध ग्रन्ध ‘राजस्थान का लोक साहित्य’ बेजोङहै. ‘कळायण’ राजस्थानी प्रकृति काव्य में सिरमोर रचना है. उनका ‘ग्योही’ कथासंग्रह राजस्थानी कहानी की यात्रा में मील का पत्थर माना जाता है.काळू में 25 नवम्बर 2004 को अपनी आत्मा से पदार्थ उतार देने वाले मनीषी साहित्यकार नानूराम संस्कर्ता का पुण्य-स्मरण करते हुए प्रस्तुत है उनकी एक कविता-
‘आज हरिया खेतां में छांवलो आवै
आभै लील गलै, वदळां री नौका कुण चलावै?
आज भंवरा फूलां नीं बैठै; थांरी जोत किरणां में
मतवाळा ऊंचा उडै चढै!
चातकङा रा जोङा, सरिता रै सारै कियां भेळा होर्या है?
साथीङां आज म्हैं घरै नीं जावूंला
आज म्हैं आभै झाङ, विश्व विभव लूंटणो चावूं.
आज समदरियै री उछाळ में झाग वणावूं;
झंझवात-हरखीली हंसी हंसै!
आज बेवजै मुरली वाजै-सारो दिन म्हैं वै में ही लगावूंला!

मदन गोपाल लढ़ा

रविवार, 31 अक्तूबर 2010

मेहंदी, कनेर और गुलाब

राजस्थानी कहानी

मेहंदी, कनेर और गुलाब

मूल- श्रीलाल नथमल जोशी अनुवाद- मदन गोपाल लढ़ा
हमारे नए मकान में पौधों की दो क्यारियां हैं। वैसे तो मकान बने बीस वर्षो से अधिक समय हो गया, पर दूसरा मकान उससे भी पुराना है, इसी कारण दोनो का भेद बताने के लिए "नए" शब्द का प्रयोग किया है। एक रात मैं घर में अकेला था और आधी रात में मेरी नींद उचट गई। मैं छत से नीचे आया और दरवाजा खोलकर दो-चार मिनट गली में खड़ा रहा। दरवाजा बंद करके जब वापस लौटा तब लगा कि मेरे कानों में एक अद्भुत शक्ति पैदा हो गई है। ऎसा लगा कि मैं पेड़-पौधों की बोली समझने लगा हूं। मैंने वहीं पांव रोप दिए। यदि आहट हुई, तो वार्तालाप रूक जाएगा। कनेर ने मेहंदी से शिकायत की-"देख मेहंदी, तुम्हारी उम्र बीस वर्ष है। तुमने अपनी जिन्दगी के अठारह वर्ष व्यर्थ गंवाए हैं। तुम अब तक नहीं जान पाई कि प्रेम क्या चीज होती है।"मेहंदी-"मैं तुम्हारी बात से सहमत हूं।""दो वर्ष पहले जब मैं यहां आया था" कनेर बोला, "तब मैंने तुमको पारस्परिक प्रेम के सुख का अनुभव कराया।" मेहंदी बोली-"मैं तुम्हारा गुण मानती हूं।" "पर तू गुण भूल गई मेहंदी।" कनेर बोला। "तुम्हारा ध्यान अब मुझमें नहीं रहा।" "यह बात भी ठीक है।" मेहंदी ने कबूल किया। "पर यह कितनी बुरी बात है, मेरी रानी। वह रात याद कर जब तुमने मुझे अपने ±दय का राजा बनाया और वचन दिया कि मेरे सिवाय अब और कोई कभी तुम्हारे दय में आसन नहीं पाएगा। क्यों मेरी बात ठीक है ना?"मेहंदी ने कहा-"ठीक को तो ठीक ही कहना पड़ेगा।" "यदि मेरी बात ठीक है तो फिर तुम्हारा आचरण...." कनेर ने लांछन लगाया। मेहंदी बोली-"तू जोर से मत बोल। लोग सुनेंगे तो नाहक हमारी बदनामी होगी। तुम्हारे ऊंचे सुर से ऎसा मालूम पड़ता है कि तुम अब मुझे प्यार नहीं करते। अगर प्यार करते तो तुम्हारी बोली मधुर होती। प्यार की बोली कभी कड़वी नहीं होती।""मैं माफी चाहता हूं कि मुझे जोश आ गया, पर तुम्हारी सफाई भी तो मैं सुनना चाहता हूं।" "स्त्री का धर्म ही चुप रहना, बरदाश्त करना है। मेरा बोलना तुम्हे अच्छा नहीं लगेगा, इस कारण मेरा नहीं बोलना ही ठीक रहेगा।" कनेर ने अपना सुर संयत किया और मन में तसल्ली करली कि बगल में गुलाब गहरी नींद में है। फिर बोला-"तुम्हारे धीरज का तो मैं शुरू से ही प्रशंसक हूं, फिर भी मेरे प्रति तुम्हारी उदासीनता समझ में नहीं आती।" मेहंदी ने कहा-"अगर बोलूंगी तो तुम्हें दुख होगा, इससे अच्छा है कि तुम मुझे चुप ही रहने दो।" थोड़ी देर सन्नाटा रहा फिर मेहंदी बोली-"जब तुम यहां आए थे, तुम्हारी रग-रग जीवट से फड़कती थी और तुमने मुझसे बिना पूछे ही मेरा आलिंगन कर लिया। तुम्हारी यह हरकत उचित तो नहीं थी, पर एकांत देखकर युवक या युवती उसका लाभ उठाते ही हैं, यह सोचकर मैं चुप रह गई। दूसरी बात यह भी है कि तुम्हारे स्पर्श से मेरी वर्षों से सोई नसों में जीवन का संचार होने लगा।" "मुझे खुशी है कि तुम सच्ची और ईमानदार हो।" " परन्तु कनेर। मेरे दुर्भाग्य से तुम्हारा विकास नहीं हुआ। शायद यह भूमि तुम्हारे अनुकूल नहीं रही। यहां आने के बाद तुम लम्बाई में तो बढ़े पर सघन नहीं हुए, तना पतला रह गया। नतीजा यह हुआ कि जवानी में ही तुम्हारी कमर बूढ़ों से अधिक झुक गई। खुद का भार वहन करना भी तुम्हारे लिए भारी हो गया और तुम मेरे सहारे रहने लगे। बुरा मत मानना कनेर। सच प्राय: कड़वा होता है।" कनेर की वाणी में उदासी तो आ गई पर वह बोला-"तुम अपनी बात चालू रखो।" गुलाब की डाली हिलती देख कर मेहन्दी चुप हो गई। फिर बोली-"कहीं हम गुलाब की नींद खराब नहीं कर दें। हमें अब चुप रहना चाहिए।" "तुम्हारी मरजी अगर तुम बात नहीं करना चाहोगी तो मैं जबरदस्ती तुम्हें बोलाने से रहा।" मेहंदी ने कहा-"मैं तुम्हारा भार दिन-रात वहन करती हूं पर फिर भी मैंने तुम्हें अलग करने की चेष्टा नहीं की। जब मैंने तुमको अपना लिया तो प्रेम निभाना मैं अपना फर्ज समझती हूं।" "तुम सच कहती हो मेहंदी?" कनेर ने तपाक-से पूछा। "मगर कनेर।" मेहंदी बोलती गई, "मैं यह भी नहीं चाहती कि तुम मेरी उमंग में बाधक बनो।" "मैंने कौनसी बाधा डाली है भला।" कनेर बोला। "गुलाब से मेरा सम्पर्क तुमको अच्छा लगता है?" मेहंदी ने पूछा। कनेर से कहा-"यह भी कोई पूछने की बात है? इसका जवाब तुम अच्छी तरह जानती हो।" "मैं सोचती हूं तुमको यह पसंद नहीं है। तुम जवानी में ही बूढ़ा गए, मेरे सहारे दिन काट रहे हो, काटो, तुम्हें इनकार नहीं, पर जब मेरी खुशी तुम्हें अखरती है तब कैसे पार पड़ेगी? जब यहां हम दो थे तब तुमने पहल की और मैंने स्वीकार। अगर तुम कुछ लायक होते और मेरे बर्ताव में फर्क आ जाता तब भी तुम मुझे कहने के हकदार होते। मगर तुमसे राम रूठ गया और मेरे भाग से गुलाब यहां आ गया।" "मेहंदी। मुझे दुख इसी बात का है कि मेरे निर्दोष रूप-व्यवहार के बाद भी कांटों वाला गुलाब तुम्हारे चित्त चढ़ गया।" मुझे खांसी आने वाली थी, पर मैंने खांसी एकदम रोक ली। मुझे याद नहीं कि मेरा सांस भी उस वक्त रूका हुआ था या चालू, कारण मुझे डर था कि कहीं मेरी थोड़ी-सी आहट भी इस वार्तालाप को बन्द कर सकती है। मेहंदी ने कहा-"कनेर। नाराज मत होना। अपने गुण पहाड़ जैसे व दूसरों के तिल जैसे लगना आम बात है। तुम्हें अपनी कूब नहीं दिखती है, गुलाब के कांटे नजर आते हैं। शायद तुमको पता नहीं कि उसके हरेक कांटे में पुष्प और पत्ते समाए हुए हैं। जिस गुलाब के पड़ोस से वातावरण महकता है उसमें कोई नई बात नहीं है पर जिस मिट्टी में वह उगता है वह भी सौरभ से धन्य होने लगती है। जो लड़कियां समझदार होती हैं वे लड़कों के रूप-रंग से ज्यादा उनके गुणों पर ध्यान देती हैं।" मेरे कान चोटी तक खड़े हुए-अरे। ये पेड़-पौधे भी आपस में लड़के-लड़कियों की बातें करते है। मेहंदी ने बात चालू रखी-"गुलाब की छुअन मेरे पत्तों को बेध देती है, पर उसके यौवन व गुणों के कारण यह हरकत भी मुझे प्रिय लगती है। मेरा एक-एक पत्ता उससे संसर्ग करके बिंधने के लिए तैयार है-उसमें ओज है, उसकी गंध में मादकता, मिठास है, उसके फूलों में रस है, रूप है। कमी क्या है, मैं नहीं जानती। अगर तुम समझा सको तो मेरे दिमाग के दरवाजे खुले है।" कनेर कुछ नहीं बोला। मेहंदी ने कहा-"कनेर मुझे दुख है कि मेरे मुंह से ऎसी कई बातें निकल गई जो तुम्हें बुरी लगी होगी। इसी कारण मैं बोलना नहीं चाहती थी, पर जब वाद छिड़ जाता है तो बोलों पर काबू नहीं रहता। मैं अब भी तुम्हें विश्वास दिलाना चाहती हूं कि गुलाब से मेरे सम्पर्क का मतलब तुम्हारा तिरस्कार नहीं है।" एकाएक गुलाब की एक कली चटकी और हवा में महक पसर गई। गुलाब की हरकतों से ऎसा लगा कि वह जाग रहा था और नींद का दिखावा कर रहा था। मेहंदी जब चुप हो गई तब गुलाब बोला-"कनेर, मुझे लग रहा है कि मेरे आने से एक गृहस्थी की सुख-शांति में विघA पड़ गया। मैं यहां आ तो गया हूं, पर यहां से जाना मेरे हाथ में नहीं है। मैं यह भी नहीं चाहता कि मेरे रहने से तुम्हें कष्ट हो। मेरे लिए एक ही धर्म है-सुख-शांति की यथास्थिति में छेड़छाड़ नहीं करना। तुम्हारी आत्मा को ठेस पहुंचाऊं तो मेरा जीना बेकार है। इससे तो अच्छा यही होगा कि मैं तुम्हारे लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दूं। यहां से जाना तो मेरे बस में नहीं पर अनशन करके सूख जाना तो मेरे हाथ में है। फिर तुम दोनों चैन से रहना।" मेहंदी की काया कांप गई। उसकी रग-रग गुलाब की इस भविष्यवाणी से रोने लग गई। कनेर भी थर-थर कांपने लगा। बोला-"गुलाब तुम संत हो। मैं अब तक तुमको महज कामुक मानता था। वास्तव में मेरे जीवन में अब कुछ शेष नहीं रहा। शायद कल तक बागवान आएगा और मुझे उखाड़ कर गली में फेंक देगा। मेरी दुआ है कि तुम दोनों फलो-फूलो।" मैं छत पर गया और सो गया। मेरे कानों में आवाज गूंजती रही-तुम दोनों फलो-फूलो.... इसके बाद कई बार मैंने पौधों की बातचीत सुनने की कोशिश की पर घंटे-दो-घंटे इंतजार के बाद भी कभी एक फुसफुसाहट की भनक तक कान में नहीं पड़ी।

बुधवार, 2 जून 2010

मातृभाषा राजस्थानी हो प्रारंभिक शिक्षा का माध्यम

मातृभाषा राजस्थानी हो प्रारंभिक शिक्षा का माध्यम

- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा -

मातृभाषा राजस्थानी को प्रदेश के जन मन ने तो कलेजे में बसाया है लेकिन सत्ता के गलियारों में मायड़ का ‘हेला’ सदैव अनसुना रहा है। राजनीतिक उदासीनता के कारण ही आठ करोड़ लोगों की जबान अपने वाजिब हक के लिए तरस रही है। इधर शिक्षा का अधिकार कानून ने शिक्षा जगत में नई बहस छेड़ दी है। इस कानून के २९ वें अनुच्छेद में स्पष्ठ प्रावधान है कि बच्चों को उनकी मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा का अवसर दिया जाए। शिक्षाविदों की भी राय है कि मातृभाषा में तीव्र गति से सीखता है।
राजनीतिक उपेक्षा के कारण मायड़ भाषा की संवैधानिक मान्यता का संकल्प 6 सालों से दिल्ली में धूल फांक रहा है तो राजस्थानी भाषा, साहित्य व संस्कृति अकादमी सहित प्रदेश की समस्त अकादमियां अध्यक्ष के अभाव में ठप पड़ी है।
तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भाषा की नदी का प्रवाह जारी है। लोक साहित्य की समृद्ध विरासत के रूप में परम्परागत ज्ञान को संचित करने के साथ राजस्थानी ने नए जमाने की बयार को खुले मन से अपनाया है तथा तकनीक की दुनिया में अपने पांव पसारे है। वेबपत्रिका नेगचार, जनवाणी परलीका, आपंणो राजस्थान ओळखाण, राजस्थली, आपणी भासा आपणी बात, मनवार, धरती धोरा री सरीखी दर्जनों वेबपत्रिकाओं के अलावा राजस्थानी साहित्यकारों के सैंकड़ों निजी ब्लॉग अन्तर्जाल के आँगन में राजस्थानी रंग बिखेर रहे हैं। यू-ट्यूब, फेसबुक व मीडिया क्लब जैसे इंटरनेट के जन मंचों पर भी राजस्थानी की धमक दुनिया भर के लोगों को अपनी समृद्धता से चमत्कृत कर रही हैं।
अब सवाल भाषा का नहीं वजूद का है। जब चीन व देश के गुजरात , महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश जैसे राज्य अपनी क्षेत्रीय भाषा के बलबूते बुलंदी के शिखर को छू सकते हैं फिर हमारी मातृभाषा पर अविश्वास क्यों ? रामस्वरूप किसान के शब्दों में "हुवै नहीं जिण देसड़ै मा भाषा रो मान, के पावे बो देसड़ो पर-देसां सम्मान।"
मायड़ भाषा राजस्थानी की संवैधानिक मान्यता का मुद्दा राजनीति के गलियारों में उलझ कर रह गया है। गत साठ वर्षों से गांधीवादी तरीके से चल रहे शांतिपूर्ण जन आंदोलन के प्रतिफल के रुप में थोथे आश्वासनों के अलावा कुछ भी नहीं मिला है जिससे अब राजस्थानी मोट्यारों का धैर्य जबाब देने लगा है। गौरतलब है कि अशोक गहलोत के नेतृत्व वाली पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने ही 25 अगस्त 2003 को प्रदेश की विधानसभा से राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का संकल्प पारित कर केन्द्र को भिजवाया था। अब केन्द्र व राज्य दोनों में कांग्रेस सत्तारूढ़ है। केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री संसद के अन्दर व बाहर कई मर्तबा राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता का प्रस्ताव रखने का भरोसा दिला चुके है। प्रदेश की जनता उस दिन का बेसब्री से इन्तजार कर जब उनकी जबान पर लगा ताला खुल जाएगा व राजस्थान की मायड़ भाषा को देष की 22 अन्य भाषाओं की तरह भारतीय संविधान में बराबरी का दर्जा हासिल होगा।
अपने पुरातन साहित्य, समृद्ध व्याकरण, वृहत शब्दकोश एवं राजस्थानी भाषी विशाल जनसमुदाय के कारण राजस्थानी पूर्ण रूप से एक वैज्ञानिक भाषा है। भाषा-भाषियां की दृष्टि से राजस्थानी का भारतीय भाषाओं में सातवाँ तथा विश्व भाषाओं में सोलहवाँ स्थान है। राजस्थान के अलावा गुजरात, पंजाब, हरियाणा व मध्यप्रदेष के सीमावर्ती क्षेत्र के लोग रोजमर्रा की जिन्दगी में राजस्थानी भाषा का प्रयोग करते है। पाकिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्रों में राजस्थानी सहजता से बोली-समझी जाती है। वहाँ राजस्थानी भाषा से नाता रखने वाली कई संस्थाएँ भी सक्रिय है। वर्ष 1994 में पाकिस्तान के राजस्थानी लेखकों एक दल जोधपुर से प्रकाषित ’माणक‘ पत्रिका के कार्यालय आया। राजस्थानी लोक साहित्य की विशाल सम्पदा है जिसमें यहाँ के लोकाचार, इतिहास, संस्कार व राग-रंग की थाती सुरक्षित है। ’ढोला मारू रा दूहा‘ तथा ’वेली क्रिसण रूकमणी री‘ जैसी उत्कृष्ट कृतियों की रचना राजस्थानी में हुई है। जिस भाषा में 20 हजार प्रकाषित ग्रंथ तथा तीन लाख से अधिक हस्तलिखित पांडुलिपियां मौजूद है। आठवीं सदी के ऐतिहासिक साक्ष्यों में जिसकी चर्चा मिलती है। जार्ज ग्रियर्सन, डा. एल. पी. टेस्सीटोरी, रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे विद्वानों ने बगैर किसी विवाद के जिसे समर्थ भाषा स्वीकार किया है, उस भाषा को मान्यता के लिए 63 वर्षों का इन्तजार हमारे समय की एक विडम्बना नहीं तो भला क्या है?
राजस्थानी स्वतंत्र व समर्थ भाषा है। जब यहां के लोग हिन्दी को प्रथम राजभाषा स्वीकार करते हुए द्वितीय राजभाषा के रूप में अपनी मायड़ भाषा की मांग करते है तो भला ऐतराज क्यों ? जबकि हिन्दी भाषी हरियाणा में पंजाबी व दिल्ली में पंजाबी व उर्दू को संयुक्त रूप से द्वितीय भाषा का दर्जा दिया गया है। गांधीजी से लेकर तमाम बड़े विद्वानों ने प्रारंभिक शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा की पैरवी की है। जब प्रदेश में उर्दू, सिंधी व पंजाबी माध्यम के 1195 विद्यालय चल रहे हैं फिर राजस्थानी माध्यम में टालमटोल क्यों ?
संसार की समस्त भाषाओं की अपनी बोलियां है, जो उसकी समृद्धि की सूचक मानी जाती है। जिस तरह अवधी, बघेली, छतीससगढी, ब्रज, बांगरू, कन्नोजी, बुंदेली व खड़ी बोली का समूह हिन्दी की धरोहर है वैसे ही वागडी, ढूंढाणी, हाड़ौती, मेवाड़ी, मेवाती, मारवाड़ी, मालवी आदि बोलियां राजस्थानी का गौरव बढ़ाती है। बोलियों की विविधता के बावजूद राजस्थानी का एक मानक स्वरूप तय है जो पूरे प्रदेष में सहज स्वीकृत है, जो ग्यारहवीं से लेकर एम.ए. तक एच्छिक विषय के रूप में पढ़ाया जाता है।
राजस्थानी जीवंत भाषा है। भक्ति, ज्ञान, श्रृंगार व वीरता से परिपूर्ण राजस्थानी साहित्य में हमारे देश के एक हजार वर्षो के राजनैतिक-सांस्कृतिक-धार्मिक अतीत के साक्ष्य सुरक्षित है। जैन धर्म के मनीषी साधुओं ने अपनी ज्ञान राशि को राजस्थानी भाषा में रचित ग्रन्थों में संजोया है। महाराणा प्रताप, रामदेवजी, तेजाजी, करणी माता, गोगाजी, जाम्भोजी, जसनाथ जी, मीराबाई, आचार्य तुलसी, जैसे भक्तों- शूरों की मातृभाषा राजस्थानी ही है। केन्द्रीय साहित्य अकादमी राजस्थानी को स्वतंत्र भाषा मानते हुए प्रतिवर्ष श्रेष्ठ पुस्तकों पर पुरस्कार देती है। राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी राजस्थान सरकार द्वारा स्थापित स्वायत्त संस्था है। राजस्थानी में दर्जनों पत्रिकाएँ नियमित प्रकाशित होती है। राजस्थानी संगीत की कर्णप्रिय धुनें सात समन्दर पार भी सुनी जाती है। राजस्थानी सिनेमा भी धीरे-धीरे अपना प्रभाव जमा रहा है। राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश के दर्जनों विश्वविद्यालयों में राजस्थानी साहित्य पर शोध कार्य हुए है तथा आज भी शोधार्थी राजस्थानी साहित्य सम्पदा से हरदम कुछ नया प्राप्त करते है।
अब समय आ गया है कि राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता देकर व शिक्षा का माध्यम बनाकर करोडों लोगों की भावनाओं का सम्मान किया जाए। राजस्थानी राजस्थान की तो अस्मिता है ही, देश का भी गौरव है। महाकवि कन्हैयालाल सेठिया के शब्दों में कहें तो राजस्थानी रै बिना क्यारों राजस्थान।

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

चट्टानों की होड़ करते हौंसले



चट्टानों की होड़ करते हौंसले

मदन गोपाल लढ़ा

किसी ने सच ही कहा है कि हौंसले फ़तह की बुनियाद हुआ करते हैं. बीकानेर जिले के सूंई ग्राम का शिशुपाल सिंह इसकी मिसाल है. बुलंद हौंसलों के धनी शिशुपाल सिंह ने अपने जीवन से आदमी के जीवट को नई परिभाषा दी है. वर्षों पूर्व एक हादसे में रीढ़ की हड्डी टूट जाने के बावजूद उसने अपने मजबूत इरादों को नहीं टूटने दिया. वाकई उसकी जिन्दादिली को सजदा करने को जी करता है.
उत्तर-पश्चिमी राजस्थान के रेतीले धोरों के बीच महाजन से २५ किमी दूर बसे सूंई ग्राम का बासिन्दा शिशुपाल सिंह भरी जवानी में एक खतरनाक हादसे का शिकार हो गया. बीस वर्षों पुरानी बात रही होगीं. गांव मे बिजली चली गई. दो दिनों तक नहीं आई. बिजली महकमे के इकलौते कर्मचारी के भरोसे दस गांवों की बिजली व्यवस्था का जिम्मा था. एसी स्थिती में गांव के लोग ही फ़्यूज वगैरह डाल कर काम चलाते थे. जब दो दिनों तक विभाग का कोई आदमी बिजली की सुध लेने नहीं आया तो ग्रामीणों के कहने पर शिशुपाल सिंह फ़्यूज लगाने के लिए ट्रांसमीटर पर चढ़ा लेकिन करंट के जोरदार झटके से वह जमीन पर गिर पड़ा व उसकी रीढ़ की हड्डी टूट गई. अब शिशुपाल सिंह की उम्र ६५ वर्ष की है. बीते बीस वर्षों से वह लकडी की खाट पर सीधा लेटा है. खुद करवट बदलना भी संभव नहीं है. यद्यपि इस दुर्घटना ने उसके शरीर को अपंग बना दिया लेकिन उसके विचार अटल-अडिग है.
खाट पर लेटे-लेटे ही शिशुपाल सिंह ने जीने का एसा मकसद तलाश लिया है जो भले चंगे लोग भी नहीं तलाश पाते. शिशुपाल सिंह ने अपने पास एक लाउडस्पीकर मंगा रखा है जिससे वह रोजाना पूरे गांव को अखबार बांच कर सुनाता है. साधन- सुविधाओं से वंचित इस गांव में ४-५ घरों में अखबार आता है, वह भी ११ बजे आने वाली इकलौती बस में, मगर शिशुपाल सिंह के प्रयासों से पूरा गांव देश-दुनिया की सुर्खियां जान जाता है. तभी तो लोग इस अनोखे समाचार-वाचक के न्यूज बुलेटिन का बेसब्री से इंतजार करते हैं. इतना ही नहीं किसी के घर जागरण हो या किसी का पशु खो जाए, गांव वालों को इसकी सूचना शिशुपाल सिंह के जरिये ही पहुंचती है. ग्राम में ग्रामसेवक या पटवारी या टीकाकरण के लिये नर्स के आने की खबर भी शिशुपाल सिंह के रेडियो से ही प्रसारित होती है.
हालांकि शिशुपाल सिंह के लिए चलना-फ़िरना तो दूर खुद करवट बदलना भी मुम्किन नहीं, मगर उसके चेहरे पर दैन्यता की छाया तक नहीं दिखती है. उसका बात-बात पर खिलखिला कर हंसना तथा चेहरे का चमकता ओज उसके चट्टानों सरीखे हौंसलों को बयां करते जान पड़ते हैं

आलेख- मदन गोपाल लढ़ा
छाया- लूणाराम वर्मा

सोमवार, 22 मार्च 2010

जुगाड़ से तो चल रहा है देश

व्यंग्य
जुगाड़ से तो चल रहा है देश !
डा. मदन गोपाल लढ़ा
गत दिनों अखबार के पहले पन्ने पर ‘अब नहीं दिखेंगे सडक़ पर जुगाड़’ खबर पढ कर झटका-सा लगा। मुश्किल यह है कि यह माननीय न्यायालय का फैसला है, जिस पर कुछ भी बोला जाना अनुचित है। मगर इस खबर ने मेरे जैसे कलम घिस्सुओं के मन में हजारों सवाल तो खड़े कर ही दिए हैं। जुगाड़ से ही तो देश चल रहा है। क्या जुगाड़ पर प्रतिबन्ध किसी भी कोने से उचित है? खैर उचित-अनुचित की छोडि़ए, मुझे तो यह असंभव-सा लगता है। हालांकि कानूनन जुगाड़ पहले से ही अवैध है। लेकिन भला हो हमारी पुलिस का जो देश के हित में इस कानून को ठंडे बस्ते में डालकर आँख बंद किए है। यह कोई आसान काम नहीं है। मुझे तो लगता है कि हमारी पुलिस सही अर्थों में गांधीवादी है, जो न तो बुरा देखने में यकीन करती है न ही बुरा सुनने में। अलबत्ता बुरा कहने के मामले में थोड़ी छूट लेती है जो समय की जरूरत भी है। तभी तो आए दिन जुगाड़ से होने वाले सडक़ हादसे पुलिस की निगाह में नहीं आते न ही हताहतों की चीख पुकार पुलिस को सुनाई देती है। रही बात कहने की, सो पुलिस की मर्जी हो तो बीस क्विंटल चारे से भरे जुगाड़ को बेरोकटोक जाने दे और जो मर्जी हो तो सीट बेल्ट नहीं लगाने पर आपका चालान काटकर डांट पिलादे।
अब बात जुगाड़ की। जीवन का ऐसा कौन सा क्षेत्र होगा जहाँ जुगाड़ की जरूरत न हो। जो जितना बड़ा जुगाड़ु वह उतना ही सफल। अब राजनीति को ही लीजिए। हमारे नेताओं की जुगत विद्या में पारंगतता की क्या होड़ । टिकट के जुगाड़ से शुरू हुआ राजनीति का सफर जुगाड़ के सहारे ही मंजिल तक पहुंचता है। वोट का जुगाड़ हो या पद का, पैसे का जुगाड़ हो या साधन-सुविधाओं का, राजनीति के अखाड़े में तो बिन जुगाड़ सब सूना-सूना है। इन दिनों तो सरकार बनाना भी जुगाड़ की करामात हो गया है। करोड़ों लोगों के चहेते अभिनेताओं के लिए सुन्दर नाक-नक्स व मधुर आवाज से कहीं बड़ी योग्यता जुगाड़ु होना है। अब वो जमाना गया जब आपकी शक्ल सूरत पर रीझकर कोई निर्माता-निर्देशक आपको अपनी फिल्म में मौका देकर ‘ब्रेक’ दे देता। निरी योग्यता के बलबूते तो आजकल बॉलीवुड में ‘क्लैप बॉय’ भी नहीं बना जा सकता। अलबत्ता किसी मुख्यमंत्री का बेटा, हॉटलों का मालिक अथवा अंडरवल्र्ड के डॉन की पर्ची हो तो बड़े पर्दे के दरवाजे आपके लिए खुले हैं। अभिनय ही नहीं गीत-संगीत में भी जुगत भिड़ाकर ही कोई जगह बना सकता है। आपकी सुविधा के लिए ‘रियलिटी शो’ के नाम पर जुगाड़ का हुनर दिखाने के बाकायदा मंच तैयार हो गए हैं। सरकारी नौकरी में जुगाड़ कला के जानकार के वारे ही न्यारे होते हैं। प्रमोशन पाना है, चाहे मन माफिक सीट, जुगाड़ तो बिठाना ही होगा। अफसर को पटाने के लिए उसकी बीवी की वक्त-बेवक्त की प्रशंसा व नित नए उपहारों से खुश रखना जुगाड़ कला के ही तो पैतरें है। धर्म जैसा क्षेत्र भी जुगाड़ के प्रभाव से अछूता नहीं रहा। घरबार छोड़ कर बाबा तो बन गए मगर जुगत विद्या छोडऩे से काम नहीं चलेगा। किसी टीवी चैनल पर प्रवचन नहीं आए तो भला बाबा कैसे ? प्रवचन के लिए लम्बे-चौडे शामियाने, भारी भीड़ , बड़े-बड़े हॉर्डिंग्स व मीडिया की मौजूदगी जुगाड़ का ही तो जादू है। साहित्य के संसार में भी जुगाड़ का महत्व कम नहीं है। साहित्य अकादमियों की सदस्यता हो चाहे साहित्यिक पुरस्कार, बिना जुगाड़ दुर्लभ ही समझिए।
अब बचा घर। सो घर ढंग चलाने के लिए भी जुगाड़ कला में दक्षता जरूरी है। मंहगाई के इस जमाने में भला कलम घिसकर या कोई छोटा-मोटा काम करके घर चल सकता है? घर बनाना हो या बेटी का विवाह करना हो, कर्जे का जुगाड़ करना ही पडता है। मेरे जैसों के महीने का आखिरी सप्ताह इधर-उधर से जुगाड़ करके ही बीतता है।
मेरा मानना है कि जुगत विद्या को सातवें वेदांग का दर्जा देकर विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल कर देना चाहिए ताकि इसे सरलता से सीखा जा सके । आप भी तो जुगाड़ के महात्म्य से अनजान नहीं होगें । सीने पर हाथ रखकर बताइए क्या जुगाड़ पर प्रतिबन्ध से देश ढंग से चल सकेगा?

शनिवार, 20 मार्च 2010

मदन गोपाल लढ़ा की राजस्थानी कविताएं

मदन गोपाल लढ़ा की राजस्थानी कविताएं

भाषा

खेत के रास्ते
मैंने सुनीं
ग्वाले के बांसुरी
बांसुरी से याद आई
कान्हा की बांसुरी
बांसुरी की भाषा को
मान्यता की नहीं जरूरत
राग-रंग, हर्ष और दुख की
होती सदैव एक ही भाषा.


बच्चे भगवान होते हैं!

बच्चा अनजान होता है
रीत-कायदा
कब जाने!
बच्चा नासमझ होता हैं
दुनियादारी
क्या समझे!
बच्चे नादान होते हैं!
बच्चे भगवान होते हैं


मन्नत

मैंने मांगा
सांवरे से
केवल और केवल
तुमको
तुम्हारे बहाने
सांवरे ने
सौंप दी मुझे
सारी दुनिया
सचमुच
अब मुझे
तुम्हारी तरह
अच्छी लगती है
यह दुनिया.


पाठशाला

तीस वर्ष पुरानी
दीवारें भी
पढी-लिखी है यहां
कान पक गए
अ अनार
आ आम की टेर सुनते
सातवें सुर में
वर्णमाला का बोलना
मंत्रों से करता है होड़.
यह पाठशाला
कैसे कम है
किसी मंदिर से ?


मेरा घर

दीवार से सटाकर रक्खी है
पुरानी चारपाई
झूले खाती मेज पर
लगा है किताबों का ढ़ेर
दीवारों पर लटक रहे हैं
नए-पुराने कलैंडर
आले में पड़ा है रेडियो
खूंटियो पर टंगे है कपड़े.
परंतु
आठ बाई दस फ़ुट का
मेरा यह कमरा
साधारण तो नहीं है
ब्रह्मा होने की
मेरी ख्वाहिशों का
साखी है.
इसकी आबो-हवा में
पसरी हुई है
कई अनलिखी
कालजयी कविताएं
जो मुझे तलाश रही हैं.

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अनुवाद- स्वयं कवि द्वारा