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बुधवार, 2 जून 2010

मातृभाषा राजस्थानी हो प्रारंभिक शिक्षा का माध्यम

मातृभाषा राजस्थानी हो प्रारंभिक शिक्षा का माध्यम

- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा -

मातृभाषा राजस्थानी को प्रदेश के जन मन ने तो कलेजे में बसाया है लेकिन सत्ता के गलियारों में मायड़ का ‘हेला’ सदैव अनसुना रहा है। राजनीतिक उदासीनता के कारण ही आठ करोड़ लोगों की जबान अपने वाजिब हक के लिए तरस रही है। इधर शिक्षा का अधिकार कानून ने शिक्षा जगत में नई बहस छेड़ दी है। इस कानून के २९ वें अनुच्छेद में स्पष्ठ प्रावधान है कि बच्चों को उनकी मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा का अवसर दिया जाए। शिक्षाविदों की भी राय है कि मातृभाषा में तीव्र गति से सीखता है।
राजनीतिक उपेक्षा के कारण मायड़ भाषा की संवैधानिक मान्यता का संकल्प 6 सालों से दिल्ली में धूल फांक रहा है तो राजस्थानी भाषा, साहित्य व संस्कृति अकादमी सहित प्रदेश की समस्त अकादमियां अध्यक्ष के अभाव में ठप पड़ी है।
तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भाषा की नदी का प्रवाह जारी है। लोक साहित्य की समृद्ध विरासत के रूप में परम्परागत ज्ञान को संचित करने के साथ राजस्थानी ने नए जमाने की बयार को खुले मन से अपनाया है तथा तकनीक की दुनिया में अपने पांव पसारे है। वेबपत्रिका नेगचार, जनवाणी परलीका, आपंणो राजस्थान ओळखाण, राजस्थली, आपणी भासा आपणी बात, मनवार, धरती धोरा री सरीखी दर्जनों वेबपत्रिकाओं के अलावा राजस्थानी साहित्यकारों के सैंकड़ों निजी ब्लॉग अन्तर्जाल के आँगन में राजस्थानी रंग बिखेर रहे हैं। यू-ट्यूब, फेसबुक व मीडिया क्लब जैसे इंटरनेट के जन मंचों पर भी राजस्थानी की धमक दुनिया भर के लोगों को अपनी समृद्धता से चमत्कृत कर रही हैं।
अब सवाल भाषा का नहीं वजूद का है। जब चीन व देश के गुजरात , महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश जैसे राज्य अपनी क्षेत्रीय भाषा के बलबूते बुलंदी के शिखर को छू सकते हैं फिर हमारी मातृभाषा पर अविश्वास क्यों ? रामस्वरूप किसान के शब्दों में "हुवै नहीं जिण देसड़ै मा भाषा रो मान, के पावे बो देसड़ो पर-देसां सम्मान।"
मायड़ भाषा राजस्थानी की संवैधानिक मान्यता का मुद्दा राजनीति के गलियारों में उलझ कर रह गया है। गत साठ वर्षों से गांधीवादी तरीके से चल रहे शांतिपूर्ण जन आंदोलन के प्रतिफल के रुप में थोथे आश्वासनों के अलावा कुछ भी नहीं मिला है जिससे अब राजस्थानी मोट्यारों का धैर्य जबाब देने लगा है। गौरतलब है कि अशोक गहलोत के नेतृत्व वाली पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने ही 25 अगस्त 2003 को प्रदेश की विधानसभा से राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का संकल्प पारित कर केन्द्र को भिजवाया था। अब केन्द्र व राज्य दोनों में कांग्रेस सत्तारूढ़ है। केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री संसद के अन्दर व बाहर कई मर्तबा राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता का प्रस्ताव रखने का भरोसा दिला चुके है। प्रदेश की जनता उस दिन का बेसब्री से इन्तजार कर जब उनकी जबान पर लगा ताला खुल जाएगा व राजस्थान की मायड़ भाषा को देष की 22 अन्य भाषाओं की तरह भारतीय संविधान में बराबरी का दर्जा हासिल होगा।
अपने पुरातन साहित्य, समृद्ध व्याकरण, वृहत शब्दकोश एवं राजस्थानी भाषी विशाल जनसमुदाय के कारण राजस्थानी पूर्ण रूप से एक वैज्ञानिक भाषा है। भाषा-भाषियां की दृष्टि से राजस्थानी का भारतीय भाषाओं में सातवाँ तथा विश्व भाषाओं में सोलहवाँ स्थान है। राजस्थान के अलावा गुजरात, पंजाब, हरियाणा व मध्यप्रदेष के सीमावर्ती क्षेत्र के लोग रोजमर्रा की जिन्दगी में राजस्थानी भाषा का प्रयोग करते है। पाकिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्रों में राजस्थानी सहजता से बोली-समझी जाती है। वहाँ राजस्थानी भाषा से नाता रखने वाली कई संस्थाएँ भी सक्रिय है। वर्ष 1994 में पाकिस्तान के राजस्थानी लेखकों एक दल जोधपुर से प्रकाषित ’माणक‘ पत्रिका के कार्यालय आया। राजस्थानी लोक साहित्य की विशाल सम्पदा है जिसमें यहाँ के लोकाचार, इतिहास, संस्कार व राग-रंग की थाती सुरक्षित है। ’ढोला मारू रा दूहा‘ तथा ’वेली क्रिसण रूकमणी री‘ जैसी उत्कृष्ट कृतियों की रचना राजस्थानी में हुई है। जिस भाषा में 20 हजार प्रकाषित ग्रंथ तथा तीन लाख से अधिक हस्तलिखित पांडुलिपियां मौजूद है। आठवीं सदी के ऐतिहासिक साक्ष्यों में जिसकी चर्चा मिलती है। जार्ज ग्रियर्सन, डा. एल. पी. टेस्सीटोरी, रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे विद्वानों ने बगैर किसी विवाद के जिसे समर्थ भाषा स्वीकार किया है, उस भाषा को मान्यता के लिए 63 वर्षों का इन्तजार हमारे समय की एक विडम्बना नहीं तो भला क्या है?
राजस्थानी स्वतंत्र व समर्थ भाषा है। जब यहां के लोग हिन्दी को प्रथम राजभाषा स्वीकार करते हुए द्वितीय राजभाषा के रूप में अपनी मायड़ भाषा की मांग करते है तो भला ऐतराज क्यों ? जबकि हिन्दी भाषी हरियाणा में पंजाबी व दिल्ली में पंजाबी व उर्दू को संयुक्त रूप से द्वितीय भाषा का दर्जा दिया गया है। गांधीजी से लेकर तमाम बड़े विद्वानों ने प्रारंभिक शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा की पैरवी की है। जब प्रदेश में उर्दू, सिंधी व पंजाबी माध्यम के 1195 विद्यालय चल रहे हैं फिर राजस्थानी माध्यम में टालमटोल क्यों ?
संसार की समस्त भाषाओं की अपनी बोलियां है, जो उसकी समृद्धि की सूचक मानी जाती है। जिस तरह अवधी, बघेली, छतीससगढी, ब्रज, बांगरू, कन्नोजी, बुंदेली व खड़ी बोली का समूह हिन्दी की धरोहर है वैसे ही वागडी, ढूंढाणी, हाड़ौती, मेवाड़ी, मेवाती, मारवाड़ी, मालवी आदि बोलियां राजस्थानी का गौरव बढ़ाती है। बोलियों की विविधता के बावजूद राजस्थानी का एक मानक स्वरूप तय है जो पूरे प्रदेष में सहज स्वीकृत है, जो ग्यारहवीं से लेकर एम.ए. तक एच्छिक विषय के रूप में पढ़ाया जाता है।
राजस्थानी जीवंत भाषा है। भक्ति, ज्ञान, श्रृंगार व वीरता से परिपूर्ण राजस्थानी साहित्य में हमारे देश के एक हजार वर्षो के राजनैतिक-सांस्कृतिक-धार्मिक अतीत के साक्ष्य सुरक्षित है। जैन धर्म के मनीषी साधुओं ने अपनी ज्ञान राशि को राजस्थानी भाषा में रचित ग्रन्थों में संजोया है। महाराणा प्रताप, रामदेवजी, तेजाजी, करणी माता, गोगाजी, जाम्भोजी, जसनाथ जी, मीराबाई, आचार्य तुलसी, जैसे भक्तों- शूरों की मातृभाषा राजस्थानी ही है। केन्द्रीय साहित्य अकादमी राजस्थानी को स्वतंत्र भाषा मानते हुए प्रतिवर्ष श्रेष्ठ पुस्तकों पर पुरस्कार देती है। राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी राजस्थान सरकार द्वारा स्थापित स्वायत्त संस्था है। राजस्थानी में दर्जनों पत्रिकाएँ नियमित प्रकाशित होती है। राजस्थानी संगीत की कर्णप्रिय धुनें सात समन्दर पार भी सुनी जाती है। राजस्थानी सिनेमा भी धीरे-धीरे अपना प्रभाव जमा रहा है। राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश के दर्जनों विश्वविद्यालयों में राजस्थानी साहित्य पर शोध कार्य हुए है तथा आज भी शोधार्थी राजस्थानी साहित्य सम्पदा से हरदम कुछ नया प्राप्त करते है।
अब समय आ गया है कि राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता देकर व शिक्षा का माध्यम बनाकर करोडों लोगों की भावनाओं का सम्मान किया जाए। राजस्थानी राजस्थान की तो अस्मिता है ही, देश का भी गौरव है। महाकवि कन्हैयालाल सेठिया के शब्दों में कहें तो राजस्थानी रै बिना क्यारों राजस्थान।

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