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शनिवार, 28 मई 2011

म्हारै पांती री चिंतावां : आरसी हरफ़ रै आंगणै

रचनात्मक प्रतिबद्धता की अनुगूँज
अब तक हमने जितने भी क़िस्से-कहानियाँ सुने-पढे हैं, उन सब में अपने हिस्से के लिए, अपने अधिकारों के लिए जूझते-लङते इंसान से साक्षात् होते रहे हैं । अदालती दरवाज़ों में भी मानवाधिकारों के हनन के ख़िलाफ़ वक़ीलों के बुलंद तर्कों की अनुगूँज सियासतदारों के आराम में ख़लल डालती रही है । ज़र, जोरू और ज़मीन के लिए रतनाती रेत वाले इस बियाबान में जब कोई व्यक्ति अपने हक़, अधिकार और हिस्से में धनात्मक अभिवृद्धि के मनुज-सुलभ फ़ॉर्मूले को छोड़कर बिलकुल अलहदा अंदाज़ में अपने हिस्से की चिंताओं, प्रतिबद्धताओं और सामाजिक सरोकारों व ज़िम्मेदारियों की बात करे तो मन उस पगलाये-बौराये से अनायास जुड़ जाता है । यह मानव प्रकृति है । धारा के विपरीत गतिविधि पर हमारा ध्यान तत्काल जाता है । अख़बारों में कुछ विज्ञापन छपते हैं, लिखा होता है - इसे न पढें, हमें उसे पूर्ण मनोयोग से और प्राथमिकता से पढते हैं ।

ठीक इसी तर्ज पर पाठक मदन गोपाल लढा की काव्य कृति ‘म्हारै पांती री चिंतावां’ की संवेदना से जुङता है । मैं भी इस उत्ताल संवेदना प्रवाह और सामाजिक प्रतिबद्धता के बहाव में बहने से स्वयं को नहीं रोक पाया ।

लढा की कविताओं का मुख्य-स्त्रोत सहजता, सरलता, सौम्यता और मानवीय नैसर्गिकता है । इन कविताओं में ग्राम्य जीवन की सहजता-सरलता है, तो शहरी जीवन की ख़ुद में सिमटे रहने की तटस्थता और रचनाकार मन की ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की सदाशयी प्रतिबद्धता भी है । कवि का मन शब्द, कविता, कवि और प्रणय की गहराईयों में डूबता-उतरता रहता है । वह सागर के गोताखोर की तरह डुबकी लगाता है और जो कुछ भी उसे हाथ लगता है, हमें पकड़ाता चलता है । लढा की यही ख़ास ‘ऑरिजिनेलिटी’ है । बनाव-श्रृंगार के षहरी दमघोटू वातावरण की तरह रची जाने वाली आज की कविता से सर्वथा अलहदा यह अंदाज़ लढा की कविताओं को पढने, जानने और समझने की ललक पैदा करता है ।
अन्तर्मन की अमूर्त संकल्पनाएँ लढा के काव्य में स्वतः उद्भूत संवेदनाओं के रूपाकार में पाठक के समक्ष उपस्थित होती है और उनकी यह काव्य-प्रकृति - आओ लढा को जाने’ का आह्वान करती है । इसी ताकत के बलबूते पर समूचे जगत की यात्रा कवि अपनी कविता में कर लेता है -
‘गुवाङ तो गुवाङ/म्हैं तो घूम लैवूं/आखै जग में/कविता रै ओळै-दोळै/ एकलो बैठ्यो ई...!’
पैमाईश की बात करें तो कवि का कर्म मार्मिकता और वैचारिकता है । कवि ने संग्रह की कविताओं में अपने अंतस की अकुलाहट और चिन्तनाओं को अलग-अलग बिम्बों के माध्यम से रचा और उकेरा है । वह बेहद सलीक़े से अपने भावों को एक के बाद एक रखता-जमाता गया है । तिलिस्म या शब्दाडंबर कहीं नहीं है । यह कवि की ख़ामोशियों का कोलाहल है । राजस्थान का लोक-जीवन और लोक-परिवेश अपनी समूची ऊर्जा, सौंदर्य, संघर्श और विद्रूप विसंगतियों के साथ इन कविताओं में पाठक से रूबरू होता है ।

स्मृतियों की जमीन तलाशता कवि कभी व्यवस्थागत बेबसी (कोनी चालै जोर) को रेखाँकित करता है तो कभी अर्थवाद की अंधदौड़ में अपनी अर्थवत्ता खोते शब्द को ढूँढने का उपक्रम दिखता है । हेत के रंगों से सरोबार हो कभी प्रीत के पन्नें हमसे साझा करता है तो कभी अपनी अधूरी अरदास के दुःख को सार्वजनिक कर कवि भाई को कवि कर्म के मूल्यों के अनुरक्षण हेतु संजीदगी बरतने का निवेदन करता दिखता है ।

कुछ वर्षों पूर्व एक पुस्तक छपी थी -‘वैनिशिंग वॉयसिस ।’ इस पुस्तक में भविष्यवाणी की गई थी कि अगर देशज भाषाओं ने अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष न किया तो वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप अगले सौ वर्षों में दुनिया की 90 प्रतिशत भाषाएँ ख़त्म हो जाएगी । ‘सरवाइवल ऑफ द फ़िटेस्ट’ की कहावत भाशाओं पर भी लागू होगी । इसी पीड़ को आत्मसात करते हुए लढा ‘म्हनैं म्हारी भासा चाईजै’ में कहते हैं -

‘म्हैं जाणूं / भासा बिहूणो हुवणो / कित्तो दुखदायी है / जियाँ गाय बिना खूंटो / टीकै बिना लिलाङ / अर मूरत बिना हुवै मिंदर / ठीक बियाँ ई / भासा बिना हुवै मिनख !’

लढा की कुरेदती-कचौटती इस दृढ-प्रतिज्ञ आश्वस्ति से मुझे शुकून मिला । ‘म्हारै पांती री चिंतावां’ लेकर मैं बाहर पार्क में आ बैठा ।

होली का त्यौंहार । बच्चे धमाचौकड़ी मचा रहे थे । सबके चेहरों पर इन्द्रधनुष पसरे हुए थे । मैं दो भागों में बँट गया । कभी होली के हुड़दंग के रंग मेरा ध्यान खींचते, तो कभी भाषा, कथ्य और चरित्र के तमाम बिंदुओं पर पूर्व स्थापित धारणाओं को जगह-जगह तोड़ती चलती और कविताई का नया मुहावरा गढ़ती लढा की कविताओं की आंतरिक बैचेनी जीवन के विद्रूप के बीच मनुष्य के लिए ‘स्पेस’ तलाशती मुझे कचोट गई ।

तुतलाती-बलखाती लड़की के गालों के गड्ढे में भरी हरी गुलाल देख कर लढाजी की ये पँक्तियाँ आँखों में तैर गई -

कैङी मुलाकात है आ / ओ म्हारी जोगण !/ ज्यूं-ज्यूं म्हैं थनैं जाणूं / खुदोख़ुद नैं बिसराऊँ/ अंतस री अँधेरी सुरंग में उतरूँ ! / सांची बता ! / थारै मिलणै रो मतलब / कठैई म्हारो गमणो तो कोनी ?’ (पृ.18)

मैं अभी इस प्रणयानुभूति में ही उलझा था कि बाहर शोर सुनाई दिया । किसी उत्पाती बच्चे ने उल्लास के अतिरेक के चलते पानी की बाल्टी भर कर लङकी पर डाल दी । प्रणय का हरा रंग पानी रंग में रंग अन्तर्मन को तलाशने लगा -

‘कोई ज़रूरी कोनी / कै सबद रो अरथ / असल ज़िंदगाणी में / बो ई हुवै/ जिको मंडयोङो हुवै / सबदकोस में/ आपरै सारू हरख रो मतलब / उछक हुय सकै / पण म्हारै खातर इण रो अरथ / फगत रोटी है !’(पृ.29)

पानी रंग की नमी से प्रभावित मैं अपने ही भीतर उतरने लगा । भाई लढा की दार्शनिक अभिव्यक्तियों के अर्थ तलाशने में जुट गया परन्तु तभी श्रीमतीजी की आँखों का लाल रंग मुझे भीतर तक कंपकंपा गया और लेनदारों की सूची हाथ में पकड़ा कर अर्थ की प्रभुसत्ता बता गया ।

‘मेह, मौत अर सपनां ई / अळघा है / बाज़ार री जद सूं / नींतर घर अर मन तांई / पूगग्या है उण रा हाथ / भाङै मिल जावै कूख तकात..!’(पृ.10)

रंग में भंग पङ गया । बैचेन मन मेरे चेहरे के पीले पङते रंग को देख कर बोल उठा -‘डग-डग डोलतो जीव / हियै रै आंगणै / झोला खावै / लारै भाजै / अेक अणखावणी छियाँ / दङाछंट !/ खुदोख़ुद सूं भाजतो जीव / अंतस री आरसी में सोधै/ अणसैंधा उणियारा / अर बांचै / ओळूं री धरती माथै / जूण रा आखर...!’ (पृ.9)

मन के विश्वास ने चेहरे के पीले पङते रंग पर सफ़ेदी पोती -‘रळ सको तो/ अेकामेक हुय जाओ /इण मुखौटा आळी भीङ में / का पछै म्हारै दांई / धार लेवो मौन !’ (पृ.20)

जीवन सत्य के सफ़ेद रंग ने धीरज की थपकी देकर मुझे आश्वस्त करना चाहा पर तभी किसी मनचले बच्चे ने दूसरे के चेहरे को काले रंग से पोत दिया और खिलखिलाने लगा । ‘ब्लैकरोज़’ बना बालक दरवाज़े के ग्रिल के बीच से मुझे निहारने लगा । मैं उसकी डरावनी शक्ल से बचने के लिए लढाजी की कविता पलटने लगा -

‘बा लपर-लपर कर’र बूक सूं / तातो लोही पीवै / अंधारघुप्प में बिजळी दांई चमकै / उण री आंख्यां / मून मांय सरणाट बाजै / उण री सांस / म्हैं एकलो / डरूं धूजतो......!’ (पृ.19)

रंगों की इस उठा-पटक से मैं विचलित था । मैं स्वयं को समेटने लगा । बच्चों के चेहरों में उनके नाम और पहचान एक हो गये । उन्हें अलग-अलग देख पाना अब सम्भव नहीं था । ठीक उसी तरह, जिस तरह लढाजी की कविताओं का वस्तु-वर्णन और भाव-वर्णन समग्रता के साथ समन्वित हो जाता है । रंग गड्ड-मड्ड हो गये और बन गया मटमैला रंग ।

-‘पैलङी तारीख नैं हाल सतरह दिन बाकी है / पण बबलू री फीस तो भरणी ई पङैला / मोखाण ई साजणो हुसी...!’ (पृ.63)

पल-पल दरकते रिष्तों को थामे रखने के कोशिश, परिस्थितिजन्य और परिवेशगत विद्रूप में उलझी आदमियत, रचनाकार का आत्म-संघर्ष, रागात्मकता की शून्यता और संवादहीनता की लौकिक चिंताएँ, जीवन स्थितियों से उत्पन्न धारणाएँ व बैचेनियों, छोटी-छोटी खुशियों में स्वप्न का संसार रचते मन की अभिव्यक्तियों और आभासी सुख की तलाश लढा की कविताओं में आकार लेती दिखती है ।

शब्द, कविता और प्रेम वह आधार है, जिस पर यह पूरी पुस्तक खड़ी है । अधिसंख्य कविताओं में कवि भिन्न-भिन्न कोणों से यही सब कुछ देखता है । यही इस संग्रह की सीमा है और यही वैशिष्ट्य ।

साफ़-सुथरे मुद्रण वाली इस पुस्तक की गुणवत्ता इसी से स्पष्ट है कि इसे प्रकाशन से पूर्व ही कमला गोइन्का फ़ाउण्डेशन, मुंबई का किशोर कल्पना कांत युवा साहित्यकार पुरस्कार प्राप्त हो चुका है ।

कुछ कविताएँ ‘लाऊडनैस’ से नहीं बच पाई है और कुछ परिमार्जन की माँग करती है । बाजवूद इसके, आज की राजस्थानी कविता के मिज़ाज़ को जानने के लिए यह एक ज़रूरी पुस्तक है ।

कृति- म्हारै पांती री चिंतावां
कवि- मदन गोपाल लढा
संस्करण- 2009
मूल्य- 120 रुपये
प्रकाशक- मनुहार प्रकाशन, महाजन (बीकानेर) ।

रवि पुरोहित
रिप्रोग्राफिक्स, पी.डबल्यू.डी.स्टोर के पास,
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