राजस्थानी कहानी
मेहंदी, कनेर और गुलाब
मूल- श्रीलाल नथमल जोशी अनुवाद- मदन गोपाल लढ़ा
हमारे नए मकान में पौधों की दो क्यारियां हैं। वैसे तो मकान बने बीस वर्षो से अधिक समय हो गया, पर दूसरा मकान उससे भी पुराना है, इसी कारण दोनो का भेद बताने के लिए "नए" शब्द का प्रयोग किया है। एक रात मैं घर में अकेला था और आधी रात में मेरी नींद उचट गई। मैं छत से नीचे आया और दरवाजा खोलकर दो-चार मिनट गली में खड़ा रहा। दरवाजा बंद करके जब वापस लौटा तब लगा कि मेरे कानों में एक अद्भुत शक्ति पैदा हो गई है। ऎसा लगा कि मैं पेड़-पौधों की बोली समझने लगा हूं। मैंने वहीं पांव रोप दिए। यदि आहट हुई, तो वार्तालाप रूक जाएगा। कनेर ने मेहंदी से शिकायत की-"देख मेहंदी, तुम्हारी उम्र बीस वर्ष है। तुमने अपनी जिन्दगी के अठारह वर्ष व्यर्थ गंवाए हैं। तुम अब तक नहीं जान पाई कि प्रेम क्या चीज होती है।"मेहंदी-"मैं तुम्हारी बात से सहमत हूं।""दो वर्ष पहले जब मैं यहां आया था" कनेर बोला, "तब मैंने तुमको पारस्परिक प्रेम के सुख का अनुभव कराया।" मेहंदी बोली-"मैं तुम्हारा गुण मानती हूं।" "पर तू गुण भूल गई मेहंदी।" कनेर बोला। "तुम्हारा ध्यान अब मुझमें नहीं रहा।" "यह बात भी ठीक है।" मेहंदी ने कबूल किया। "पर यह कितनी बुरी बात है, मेरी रानी। वह रात याद कर जब तुमने मुझे अपने ±दय का राजा बनाया और वचन दिया कि मेरे सिवाय अब और कोई कभी तुम्हारे दय में आसन नहीं पाएगा। क्यों मेरी बात ठीक है ना?"मेहंदी ने कहा-"ठीक को तो ठीक ही कहना पड़ेगा।" "यदि मेरी बात ठीक है तो फिर तुम्हारा आचरण...." कनेर ने लांछन लगाया। मेहंदी बोली-"तू जोर से मत बोल। लोग सुनेंगे तो नाहक हमारी बदनामी होगी। तुम्हारे ऊंचे सुर से ऎसा मालूम पड़ता है कि तुम अब मुझे प्यार नहीं करते। अगर प्यार करते तो तुम्हारी बोली मधुर होती। प्यार की बोली कभी कड़वी नहीं होती।""मैं माफी चाहता हूं कि मुझे जोश आ गया, पर तुम्हारी सफाई भी तो मैं सुनना चाहता हूं।" "स्त्री का धर्म ही चुप रहना, बरदाश्त करना है। मेरा बोलना तुम्हे अच्छा नहीं लगेगा, इस कारण मेरा नहीं बोलना ही ठीक रहेगा।" कनेर ने अपना सुर संयत किया और मन में तसल्ली करली कि बगल में गुलाब गहरी नींद में है। फिर बोला-"तुम्हारे धीरज का तो मैं शुरू से ही प्रशंसक हूं, फिर भी मेरे प्रति तुम्हारी उदासीनता समझ में नहीं आती।" मेहंदी ने कहा-"अगर बोलूंगी तो तुम्हें दुख होगा, इससे अच्छा है कि तुम मुझे चुप ही रहने दो।" थोड़ी देर सन्नाटा रहा फिर मेहंदी बोली-"जब तुम यहां आए थे, तुम्हारी रग-रग जीवट से फड़कती थी और तुमने मुझसे बिना पूछे ही मेरा आलिंगन कर लिया। तुम्हारी यह हरकत उचित तो नहीं थी, पर एकांत देखकर युवक या युवती उसका लाभ उठाते ही हैं, यह सोचकर मैं चुप रह गई। दूसरी बात यह भी है कि तुम्हारे स्पर्श से मेरी वर्षों से सोई नसों में जीवन का संचार होने लगा।" "मुझे खुशी है कि तुम सच्ची और ईमानदार हो।" " परन्तु कनेर। मेरे दुर्भाग्य से तुम्हारा विकास नहीं हुआ। शायद यह भूमि तुम्हारे अनुकूल नहीं रही। यहां आने के बाद तुम लम्बाई में तो बढ़े पर सघन नहीं हुए, तना पतला रह गया। नतीजा यह हुआ कि जवानी में ही तुम्हारी कमर बूढ़ों से अधिक झुक गई। खुद का भार वहन करना भी तुम्हारे लिए भारी हो गया और तुम मेरे सहारे रहने लगे। बुरा मत मानना कनेर। सच प्राय: कड़वा होता है।" कनेर की वाणी में उदासी तो आ गई पर वह बोला-"तुम अपनी बात चालू रखो।" गुलाब की डाली हिलती देख कर मेहन्दी चुप हो गई। फिर बोली-"कहीं हम गुलाब की नींद खराब नहीं कर दें। हमें अब चुप रहना चाहिए।" "तुम्हारी मरजी अगर तुम बात नहीं करना चाहोगी तो मैं जबरदस्ती तुम्हें बोलाने से रहा।" मेहंदी ने कहा-"मैं तुम्हारा भार दिन-रात वहन करती हूं पर फिर भी मैंने तुम्हें अलग करने की चेष्टा नहीं की। जब मैंने तुमको अपना लिया तो प्रेम निभाना मैं अपना फर्ज समझती हूं।" "तुम सच कहती हो मेहंदी?" कनेर ने तपाक-से पूछा। "मगर कनेर।" मेहंदी बोलती गई, "मैं यह भी नहीं चाहती कि तुम मेरी उमंग में बाधक बनो।" "मैंने कौनसी बाधा डाली है भला।" कनेर बोला। "गुलाब से मेरा सम्पर्क तुमको अच्छा लगता है?" मेहंदी ने पूछा। कनेर से कहा-"यह भी कोई पूछने की बात है? इसका जवाब तुम अच्छी तरह जानती हो।" "मैं सोचती हूं तुमको यह पसंद नहीं है। तुम जवानी में ही बूढ़ा गए, मेरे सहारे दिन काट रहे हो, काटो, तुम्हें इनकार नहीं, पर जब मेरी खुशी तुम्हें अखरती है तब कैसे पार पड़ेगी? जब यहां हम दो थे तब तुमने पहल की और मैंने स्वीकार। अगर तुम कुछ लायक होते और मेरे बर्ताव में फर्क आ जाता तब भी तुम मुझे कहने के हकदार होते। मगर तुमसे राम रूठ गया और मेरे भाग से गुलाब यहां आ गया।" "मेहंदी। मुझे दुख इसी बात का है कि मेरे निर्दोष रूप-व्यवहार के बाद भी कांटों वाला गुलाब तुम्हारे चित्त चढ़ गया।" मुझे खांसी आने वाली थी, पर मैंने खांसी एकदम रोक ली। मुझे याद नहीं कि मेरा सांस भी उस वक्त रूका हुआ था या चालू, कारण मुझे डर था कि कहीं मेरी थोड़ी-सी आहट भी इस वार्तालाप को बन्द कर सकती है। मेहंदी ने कहा-"कनेर। नाराज मत होना। अपने गुण पहाड़ जैसे व दूसरों के तिल जैसे लगना आम बात है। तुम्हें अपनी कूब नहीं दिखती है, गुलाब के कांटे नजर आते हैं। शायद तुमको पता नहीं कि उसके हरेक कांटे में पुष्प और पत्ते समाए हुए हैं। जिस गुलाब के पड़ोस से वातावरण महकता है उसमें कोई नई बात नहीं है पर जिस मिट्टी में वह उगता है वह भी सौरभ से धन्य होने लगती है। जो लड़कियां समझदार होती हैं वे लड़कों के रूप-रंग से ज्यादा उनके गुणों पर ध्यान देती हैं।" मेरे कान चोटी तक खड़े हुए-अरे। ये पेड़-पौधे भी आपस में लड़के-लड़कियों की बातें करते है। मेहंदी ने बात चालू रखी-"गुलाब की छुअन मेरे पत्तों को बेध देती है, पर उसके यौवन व गुणों के कारण यह हरकत भी मुझे प्रिय लगती है। मेरा एक-एक पत्ता उससे संसर्ग करके बिंधने के लिए तैयार है-उसमें ओज है, उसकी गंध में मादकता, मिठास है, उसके फूलों में रस है, रूप है। कमी क्या है, मैं नहीं जानती। अगर तुम समझा सको तो मेरे दिमाग के दरवाजे खुले है।" कनेर कुछ नहीं बोला। मेहंदी ने कहा-"कनेर मुझे दुख है कि मेरे मुंह से ऎसी कई बातें निकल गई जो तुम्हें बुरी लगी होगी। इसी कारण मैं बोलना नहीं चाहती थी, पर जब वाद छिड़ जाता है तो बोलों पर काबू नहीं रहता। मैं अब भी तुम्हें विश्वास दिलाना चाहती हूं कि गुलाब से मेरे सम्पर्क का मतलब तुम्हारा तिरस्कार नहीं है।" एकाएक गुलाब की एक कली चटकी और हवा में महक पसर गई। गुलाब की हरकतों से ऎसा लगा कि वह जाग रहा था और नींद का दिखावा कर रहा था। मेहंदी जब चुप हो गई तब गुलाब बोला-"कनेर, मुझे लग रहा है कि मेरे आने से एक गृहस्थी की सुख-शांति में विघA पड़ गया। मैं यहां आ तो गया हूं, पर यहां से जाना मेरे हाथ में नहीं है। मैं यह भी नहीं चाहता कि मेरे रहने से तुम्हें कष्ट हो। मेरे लिए एक ही धर्म है-सुख-शांति की यथास्थिति में छेड़छाड़ नहीं करना। तुम्हारी आत्मा को ठेस पहुंचाऊं तो मेरा जीना बेकार है। इससे तो अच्छा यही होगा कि मैं तुम्हारे लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दूं। यहां से जाना तो मेरे बस में नहीं पर अनशन करके सूख जाना तो मेरे हाथ में है। फिर तुम दोनों चैन से रहना।" मेहंदी की काया कांप गई। उसकी रग-रग गुलाब की इस भविष्यवाणी से रोने लग गई। कनेर भी थर-थर कांपने लगा। बोला-"गुलाब तुम संत हो। मैं अब तक तुमको महज कामुक मानता था। वास्तव में मेरे जीवन में अब कुछ शेष नहीं रहा। शायद कल तक बागवान आएगा और मुझे उखाड़ कर गली में फेंक देगा। मेरी दुआ है कि तुम दोनों फलो-फूलो।" मैं छत पर गया और सो गया। मेरे कानों में आवाज गूंजती रही-तुम दोनों फलो-फूलो.... इसके बाद कई बार मैंने पौधों की बातचीत सुनने की कोशिश की पर घंटे-दो-घंटे इंतजार के बाद भी कभी एक फुसफुसाहट की भनक तक कान में नहीं पड़ी।