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रविवार, 22 नवंबर 2009

हाथ में गुलाब का फूल (राजस्थानी कहानी)

हाथ में गुलाब का फूल

मूल- श्यामसुन्दर भारती
अनुवाद- डा. मदन गोपाल लढ़ा


मरा। कौन जाने कितने वर्षों से बन्द पड़ा! न जाने कैसा-कैसा और क्या-क्या सामान। सामान नहीं, कबाड़ से भरा हुआ। वर्षों पुरानी किताबें और ये चीजें, और वे चीजें और आलतू-फालतू न जाने क्या-क्या! मुँह तक ठसाठस भरा हुआ। इतना सामान कि पैर धरने को भी जगह नहीं। ताक ऊपर धूल की परतों पर परतें जमी हुई। यह मोटी-मोटी थर आई हुई। नौकरी और फिर दुनिया भर की इतनी उलझनने कि एक पल भी सांस लेने की फुरसत नहीं, कि थोड़ी देर रुक कर विश्राम किया जा सके, कि कमरे के ताक को संभाला जा सके कि झाड़-पौंछ हो सके किसी दिन। बाहर -भीतर झांक कर देखा जा सके अन्धेरी कोटड़ी में, कि थोड़ी देर ठहरा जा सके, कि झांका जा सके किसी दिन खुद के अन्दर। नहीं-नहीं, इतनी फुरसत और वह भी आज के युग में!और यूं ही हर बार कि फिर कभी, कि बस फिर कभी ! इसी ऊहापोह में प्रत्येक दिन, कि एक दिन निश्चित करना है, कि इस बार, और उसी दिन करना ! पर नौकरी, बीबी -बच्चे, घर-परिवार, संगी-साथी, मिलने जुलने वाले और यहां के तथा वहां के और ये तथा वे न जाने क्या-क्या ? मतलब की उलझनें ही उलझनें। ठहराव को एक पल भी नहीं। व्यवधान इतने कि ठहरने अथवा रुकने का नाम भी नहीं। इसी तरह की उलझनों की ऊहापोह में वक्त अनंत पंखो से उड़ता रहा फुर्र-फुर्र ! मतलब कि अतीत के दर्पण पर धूल ही धूल ! नतीजन खुद पर तीव्र गुस्सा, झुंझलाहट और एक अनजान अनमनापन। और फिर मन मार कर एक दिन समय निकालना। मतलब कि साफ फालतू बोझ जैसे लगने वाले अनचाहे काम के लिए छुट्टी का एक कीमती दिन शहीद करना और झाड़नें-पौंछनें और सब कुछ इधर-उधर बिखेरने के लिए पालथी मार कर जम जाना।चारों तरफ पुरानी किताबें और यह, और वह और न जाने क्या-क्या ! आलतू-फालतू और कबाड़ से जूझने में मगन। कभी एक -एक चीज की बड़ी सावधानी से जांच परख, तो कभी बस एक उड़ती सी नजर। कहीं-कहीं थोड़ा रुककर अतीत को पढने की जुगत। कुछ ठीक-ठीक याद नहीं, एक धुंधली सी झलक, एक समृति की चमक। तो मगज में एक हलचल तथा अचरज कि अच्छा, यह ? और यह भी ? कि मैं तो बिलकुल भूल चुका। मगज पर जोर देकर याद करके ही चेष्टा कि कब? कि किस घड़ी? फिर थोड़ी देर याद करने की खपत करने के बाद तसल्ली कि अरे हां , यह तो तब, और यह उस घड़ी, और उस वक्त। पर सब कुछ शायद या अगर -मगर। और इस तरह धीरे-धीरे........धीरे-धीरे यादों की बन्द कोटड़ी में सरकता जाना, धीरे-धीरे......धीरे-धीरे पिछले दिनों के पीछे..........और पीछे।फिर तो एक-एक चीज को बड़ी सतर्कता से जांचना-परखना, तथा नजरों को बाहर निकालना कि अरे हां...... ये तो तब की....... और यह जब की ! कि इसी बीच अचानक निगाहों का कुछ किताबों पर ठहर जाना। और देखते हुए दुखी हो जाना। किताबों का खासा हिस्सा दीमक चाट कर साफ कर चुके। तो बहुत गहरे तक मन में पीड़ा के बुलबुलों का उठना, तो गहरे मोह और घनी पीड़ में पगी बेबसी से उन किताबों की ओर देखना और फिर देर तक अपलक देखते जाना, देखते ही जाना। और आखिरकार भारी मन से उन किताबों को कचरे की टोकरी में बाहर फैंकने के लिए डाल देना। और इसके साथ बाकी बची हुई चीजों की झाड़-पौंछ में लग जाना। उनकी जांच परख में खो जाना कि उनमें डूबने के सम्मोहन में सो जाना। उसी वक्त अचानक कुछ याद आते ही एक झटके के साथ झिझक कर जागना और जैसे बिजली की गति से लपक कर अभी-अभी कचरे की टोकरी में डाली किताबों में से एक किताब को वापस उठाना, जैसे कि वह दुनिया की सबसे अनमोल किताब हो।क्या कुछ ? पर शायद कुछ था जो वक्त व दीमकों द्वारा चाटी हुई किताबों के साथ कचरे की टोकरी में फेंक दिया गया था, जो अतीत की गहरी परतों और सालों साल के घटाटोप कोहरे की गहरी कालिमा के बावजूद मानो यादों के आकाश में काले बादलों में बिजली की चमक की एक पतली सी रेखा की तरह अचानक कौंधा था। जैसे बड़ी सावधानी से , धीरे से उस किताब को पकड़ना और बड़े जतन से एक-एक पन्ने का उलट-पलट कर ध्यान से देखना.........कि दीमक झाड़ने की जुगत में किताब का हाथ से छूट कर नीचे गिर जाना....नीचे गिरते ही किताब का खुल जाना.... कि वक्त की मार से किताब के सड़े-गले पन्नों के बीच से सिमसिम का खुलना........एक सूखा हुआ गुलाब का फूल .......डाली और पत्तियों समेत ......और नजरों का उसी पर ठहर जाना.........जड़ हो जाना।समूची चेतना अपनी एकल अवस्था में एक बिन्दु पर टिकी हुई-न इधर , न उधर ,न आस, न पास । दृष्टि थमी हुई तथा एक जगह जमी हुई । डाली पत्तियों समेत सूखा हुआ गुलाब का फूल। बस, फूल ! कि अचानक डाली हरी होने लगी। पंत्तियां ताजी, और फूल जैसे आज ही खिला हो ! और तभी फूल से सुगन्ध आने लगी। सुवास नथुनों से होती हुई अन्दर तक उतरने लगी और एकदम खिला हुआ गुलाब का फूल। अपनी मदभीनी खुशबू बिखेरता हुआ। ठीक वैसा ही, जैसा कि उस दिन रेशमी रुमाल में लपेट कर उसने प्रीत की पहली निशानी के रूप में दिया था। उस सुहाने पल-क्षण में पूरी तरह डूबी मनगत, दोनों के नयनों में प्रीत के लाल-गुलाबी डोरे। बस, साक्षात वही पल ! प्रीत की हिलोरें भरता हुआ अथाह सागर। चिमटी में डाली, डाली पर हरी पंत्तियां , ऊपर प्रीत की मनमोहक खुशबू बिखेरता मुस्कराता हुआ गुलाब का फूल !

5 टिप्‍पणियां:

alka mishra ने कहा…

सच बता !
तुम्हारे मिलने का मतलब
कहीं मेरा खोना तो नहीं है.


नहर पहचानती है
अपनी हद
वह न तो नदी है
न ही समुद्र
सपना भी नहीं पालती.
आपकी कविताओं ने दिन भर की थकान मिटा दी ,शब्दकोष सबसे अच्छी लगी
मुबारक

दुलाराम सहारण ने कहा…

बहुत खूब 'मनुहार' बधाई, निरंतरता बनाए रखिएगा।

श्‍यामसुंदर भारती की कहानी श्रेष्‍ठ लगी, आभार।

ओम पुरोहित'कागद' ने कहा…

भादन लढा जी,
आपरो ब्लागड़ो तो जोरदार है अर है जित्ती रचनावां हॅ बै भी स्सै री स्सै सांतरी है पण अड़ंगो खासा बोदो होग्यो।भळै खेचळ करो देखाण! चाँदमारी यानी तोपाभ्यास आळा40गांवां रा लोगड़ा ई अब तो इन्नै-बिन्नै जाय'र बसग्या।घर-जमीनां रा पईसा ई बाट'र लोगां ऐडै लगा दिया।पण थे तो आज भी आकळ-बाकळ होयोड़ा बगो इल्लौ जी दाईँ।हरेक संवेदनशील नै होवणौ ई चाइजै।रचना पण टाळ'र घालण री खेचळ ई करनी चाईजै! बाकी पण चालसी लाडीथारी मरजी ।सुण म्हारी है अरजी! ब्लाग है थारो सरजी!
-ओम पुरोहित'कागद' omkagad.blogspot.com

ओम पुरोहित'कागद' ने कहा…

रचना जद घाली
हो
नवम्बर 2009
इण रै बाद
आग्यो
मार्च 2010
बस !
का
नवम्बर मेँ ई
घाल्या करो ?
तो
ईँ रो मतलब
और ऊडीकां
मईना 6
ओ ई
इरादो
थारो
लागै छै!
दूजै
ब्लागड़ां
अर अखबार
पत्रिकावां माथै
मोकळा दिखो
पण
आपरो ब्लागड़ो
सूनो ई
छोड राख्यो है
जियां
पालीवाल छोडग्या
कुलधरा नै!
-ओम पुरोहित'कागद' हनुमानगढ़ संगम
omkagad.blogspot.com

ओम पुरोहित'कागद' ने कहा…

रचना जद घाली
हो
नवम्बर 2009
इण रै बाद
आग्यो
मार्च 2010
बस !
का
नवम्बर मेँ ई
घाल्या करो ?
तो
ईँ रो मतलब
और ऊडीकां
मईना 6
ओ ई
इरादो
थारो
लागै छै!
दूजै
ब्लागड़ां
अर अखबार
पत्रिकावां माथै
मोकळा दिखो
पण
आपरो ब्लागड़ो
सूनो ई
छोड राख्यो है
जियां
पालीवाल छोडग्या
कुलधरा नै!
-ओम पुरोहित'कागद' हनुमानगढ़ संगम
omkagad.blogspot.com