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मंगलवार, 15 नवंबर 2011

‘मानुष सत्य’ का हिमायत करती कहानियां


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किताब

‘मानुष सत्य’ का हिमायत करती कहानियां

नामी कथाकार महीप सिंह की साम्प्रदायिक तनाव पर केन्द्रित कहानियों का संग्रह ‘आठ कहानियां’ इस संवेदनशील मुद्दे पर अनुभवों के नवीन वातायन खोलती है. बोधि पुस्तक पर्व के अंतर्गत प्रकाशित यह किताब विभाजन व दंगों की त्रासदी को इस तरह उजागर करती है कि पाठक के मन-मस्तिष्क में कथ्य देर तक गूंजता है. यही अनुगूंज धीरे-धीरे मानसिकता में बदलाव की जमीन तैयार करती है.
महीप सिंह ने साम्प्रदायिक तनाव की विभिन्न स्तिथियों को करीब से देखा-भोगा है. विभाजन ने सीमाओं को तो बांट दिया, मगर दिल तो नहीं बांट सकते. कथाकार ने इन कहानियों के मिस बंटवारे से लोगों के मनों में फ़ूटने वाले फ़फ़ोलों की सुध ली है. उनकी कहानियों संकीर्ण दृष्टिकोण के सतही चित्र नहीं है बल्कि लोगों के मन के अविश्वास, भय व स्वार्थी तत्वों के छल-छद्मों को उजागर करने में उनका कथा कौशल देखते ही बनता है.
किताब की पहली कहानी ‘पानी और पुल’ सचमिच एक मार्मिक कहानी है. बंटवारे के १४ वर्षों बाद मां-बेटे पंजासाहब की यात्रा के मिस अब पाकिस्तान का हिस्सा बन चुके अपने गांव से गुजरते हैं. मां की आंखों से बहती आंसू की धारा और जेहलम के पुल के नीचे से बहता पानी. आंसुओं की न तो कोई जाति होती है, न मजहब. चौदह वर्षों से अपने घर-गांव की स्मृतियों के साथ जीती मां और उन्हीं सरोकारों के लिए देर रात स्टेशन पर खड़े लोग. पोटलियों में केखक व उसकी मां को बादाम, अखरोट, किशमिश ही नहीं, अपना दिल सौंपते हैं. सराई गांव के लोगों का ‘वापस लौटने’ का अनुरोध विभाजन की त्रासदी पर पुल बनाने जैसा है. ‘दिल्ली कहां है’ संग्रह की उल्लेखनीय रचना है जिसमें विस्थापन की त्रासदी का ईमानदारी से अंकन हुआ है. बंटवारे ने दोनों तरफ़ मार की. नारायण दास जैसे लोगों की पीडा़ सचमुच करुणा जगाती है. अपनी शिल्पगत मौलिकता से यह कहानी मन को छूने वाले कथ्य के कारण बेजोड़ है. संग्रह की कहानी ‘आओ हंसे’ पाठक को एक अलग अनुभव से गुजारती है. " क्या पता था इसी जीवन में एक बार फ़िर उजड़ना पड़ेगा..." (पृ.५०) नानकचंद का यह कथन उनके अंतस के डर, अनिश्चितता व आकुलता को खोलकर रख देता है. इधर नानकचंद का परिवार जालंधर छोडने की सोच रहा है, उधर निहालसिंह का कुटुम्ब दिल्ली से धंधा समेट कर पंजाब जाने मन बना रहा है. कैसी विवशता है यह? कहानी पाठक के सामने सवाल छोड़ जाती है, ‘शहर’ कहानी का कथ्य तो नया नहीं, मगर उसके प्रतुति अनूठी है. कहानी के मुख्य पात्र ‘भाई साहब’ ने हालांकि कानपुर में दंगों से दुखी होकर जालंधर जाने का फ़ैसला कर लिया मगर उनकी कानपुर की समस्त यादें सताई हुई नहीं है. यही वह शहर है, जहां वे जन्में, पले-बढ़े, खूब पैसा कमाया, लोगों से दोस्ताना रिश्ता बनाया. क्या एक हादसे की वजह से उस शहर को अपनी जिंदगी से अलग करना संभव है? इस सवाल का जबाब भाई साहब के इस कथन में तलाशा जा सकता है- " अब तो होड़-सी लगी दिखती है-मैं अपने आपको उस शहर से समेटता हूं या वक्त मुझे समेटता है." (पृ.७१)  ‘सहमे हुए’ भी एक सशक्त कहानी है, रात का वक्त. सुनसान जगह पर खड़ी गाड़ी. बाहर दंगाईयों की भीड़, जो धीरे-धीरे गाड़ी के करीब आ रही है. दंगाईयों का मजहब ना मालूम, वैसे भी भीड़ का कोई मजहब कहां होता है? केबिन में चार दोस्त. सहकर्मी. एक हिंदु ब्राह्मण, एक हैरिजन, एक मुस्लिम व एक इसाई. बुरी तरह सहमे हुए. पसीने से तरबतर. एक-दूसरे को पलोसते चले जा रहे हैं. अब इससे अधिक भला कौन-सा सच बता सकती है कोई कहानी! 
‘एक मरता हुआ दिन’ के हरनाम सिंह के बहाने कथाकार एक कड़वे सच से साक्षात करवाता है.एक तरफ़ मध्यायुगीन बर्बरता जो आदमी को आदमी न मानकर जाति-समुदाय का प्रतीक मानकर मारने को उतारु है तो दूसरी ओर झौंपड़ी में विषम परिस्तिथितियों में जीने वाले लोग मदद का हाथ बढ़ाते हैं. कैसी दुनिया है ये? ऐसी क्यों है? ‘पहले जैसे दिन’ का विषय-विन्यास अन्य कहानियों से किंचित अलग है. सचमुच विश्वास का पतला धागा टूट जाता है तब ऐसी स्तिथियां ही पैदा होती है. इस अविश्वास भरे माहौल में ‘मैं’ ‘हम’ बन जाते हैं. क्या पहले जैसे दिन फ़िर नहीं लौट सकते? सवाल पाठकों से यानी हमसे हैं. इसका जबाब हमें ही ढ़ूंढ़ना पड़ेगा. किताब की आखिरी कहानी ‘डर’ में महीप सिंह का कथा-कौशल सर चढ़कर बोलता है , जब वे कीड़े-मकोड़ों के प्रतीकों से लोगों के दिल-ओ-दिमाग में पलते अविश्वास, डर व घृणा को बापर्दा कर देते हैं. इस अभरोसे ने ही तो इस देश को ऐसी स्तिथि में ला दिया हैं, जहां कोई अफ़वाह, छोटी-सी घटना बड़े तांडव का कारण बन जाती है. कहानी मे जो कीड़े-मकोड़े मरने-मारने को तैयार थे, वही अंत में दंगा पीड़ितों को राहत शिविर में भेजते वक्त पैसे, कपड़े-लत्ते, खाने-पीने की चीजें देते हैं. क्या यही है समाधान? कहानी पाठक को मंथन के लिए एक बड़ा सवाल सौंपती है.
किताब की कहानियों में साम्प्रदायिक विद्वेष के सतही चित्र नहीं है बल्कि उन्होनें इस गम्भीर मुद्दे की मूल संवेदना को पकड़ते हुए अद्यतन अनछुए पहलुओं को उजागर किया है. वस्तुत: उनकी रचनाएं चंडीदास की उक्ति ‘सबाय उपरे मानुष सत्य’ की हिमायत करती नजर आती है.

-मदन गोपाल लढ़ा
१४४, लढ़ा-निवास, 
महाजन, बीकानेर-३३४६०४
madanrajasthani@gmail.com

1 टिप्पणी:

Rajput ने कहा…

पहली बार आपके ब्लॉग पे आया, बहुत अच्छा लिखा है आपने .