मदन गोपाल लढ़ा की राजस्थानी कविताएं
भाषा
खेत के रास्ते
मैंने सुनीं
ग्वाले के बांसुरी
बांसुरी से याद आई
कान्हा की बांसुरी
बांसुरी की भाषा को
मान्यता की नहीं जरूरत
राग-रंग, हर्ष और दुख की
होती सदैव एक ही भाषा.
बच्चे भगवान होते हैं!
बच्चा अनजान होता है
रीत-कायदा
कब जाने!
बच्चा नासमझ होता हैं
दुनियादारी
क्या समझे!
बच्चे नादान होते हैं!
बच्चे भगवान होते हैं
मन्नत
मैंने मांगा
सांवरे से
केवल और केवल
तुमको
तुम्हारे बहाने
सांवरे ने
सौंप दी मुझे
सारी दुनिया
सचमुच
अब मुझे
तुम्हारी तरह
अच्छी लगती है
यह दुनिया.
पाठशाला
तीस वर्ष पुरानी
दीवारें भी
पढी-लिखी है यहां
कान पक गए
अ अनार
आ आम की टेर सुनते
सातवें सुर में
वर्णमाला का बोलना
मंत्रों से करता है होड़.
यह पाठशाला
कैसे कम है
किसी मंदिर से ?
मेरा घर
दीवार से सटाकर रक्खी है
पुरानी चारपाई
झूले खाती मेज पर
लगा है किताबों का ढ़ेर
दीवारों पर लटक रहे हैं
नए-पुराने कलैंडर
आले में पड़ा है रेडियो
खूंटियो पर टंगे है कपड़े.
परंतु
आठ बाई दस फ़ुट का
मेरा यह कमरा
साधारण तो नहीं है
ब्रह्मा होने की
मेरी ख्वाहिशों का
साखी है.
इसकी आबो-हवा में
पसरी हुई है
कई अनलिखी
कालजयी कविताएं
जो मुझे तलाश रही हैं.
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अनुवाद- स्वयं कवि द्वारा
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कालजयी कविताएं
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