ताजा-तरीन:


विजेट आपके ब्लॉग पर

रविवार, 3 अप्रैल 2011

राजस्थानी कहानी


फ़ुरसत

मूल- डॊ. मदन सैनी

बासठ वर्षों के बुजुर्ग मघजी अब तक यह नहीं समझ पाए कि जिस बात को वे समझ रहे है, उसे दूसरे लोग क्यों नहीं समझ पा रहे है। नहीं समझते तो मत समझो। उनको क्या फर्क पड़ता है। परन्तु फिर भी यह बात समझने की तो है ही। वैसे मघजी को अपनी गहरी समझ पर पूरा भरोसा है। इस समझ के कई पुख्ता प्रमाण भी है उनके पास। मां-बाप के मोभी पूत मघजी। मघजी के बापू व्यापार का ककहरा भी जानते, जिन्दगी भर सेठों के खेत-खलिहानों में काम करते रहे। कई बार अकाल भी पड़ा, तो घर में चूहों के फाकाकशी की नौबत आ गई। परन्तु मघजी के समझ पकड़ने के बाद घर में कभी तंगी नहीं आई। उनका व्यापार बढ़ने लगा तो निरन्तर बढ़ता ही गया। उनकी मेहनत रंग लाई। समझ के बल पर उनकी कीर्ति के स्तम्भ घर, गांव और गांव से बाहर तक स्थापित हो गए।बड़ी बेटी दुर्गा और मंझले मोहन के जन्म और विवाह की बेला में गांव में जैसा आनन्द-उत्सव हुआ वैसा न तो पहले कभी हुआ और न ही होगा। यदि होगा भी तो उनके ही सबसे छोटे बेटे के विवाह में, जो अभी बाकी है। मघजी के घर में आज कौन है ऎसा जो पहन-ओढकर बाहर निकले, और वाह-वाह न हो। दुर्गा की मां तो सोने से लदकर कनक-कांब जैसी लगती है, तो भला कौन नहीं सराहे। और ये सब गाजे-बाजे किसके भरोसे? निश्चित बात है-मघजी की समझ के बलबूते। फलों-फूलों से हरे-भरे बगीचे की मानिन्द है मघजी का घर-बार और अब तक जिसके बागवान थे खुद मघजी।मघजी को कुछ खबर भी नहीं लगी पर धीरे-धीरे व्यापार वाणिज्य की बागडोर मोहन ने सम्भाल ली। उनको तो तब ध्यान आया जब मोहन ने उनसे विनती की-अब आप साठी पार कर गए हो, यह उम्र आराम करने की है। आप देस जाकर घर-बार सम्भालों, कुछ ध्यान-धूप, पूजा-पाठ में मन लगाओ। बडे-बडे व्यापारियों को सलाह देने वाले मघजी को एकबारगी तो लगा कि उनकी समझ पंगु हो गई है। जिस समझ पर पूरी जिंदगी गुमान किया उनका ही सपूत उसे बिसरा रहा है। मगर मघजी सूझ वाले आदमी थे। सोच-समझकर घर रहना ही ठीक मानकर मंदिर-देवरा, पूजा-पाठ में ध्यान लगाने का मन बना लिया। ऎसा इरादा करना तो आसान था परन्तु इसमें मन लगाकर दिन काटना बहुत मुश्किल था। दिन उगता है तो छिपना मुश्किल और छिप जाए तो उगना कठिन। दिन बीते चाहे रात, मघजी को लगता जैसे युग बीत रहा हो।
"ऎसे तो पार नहीं पड़ेगी दुर्गा की मां।" मघजी ने अपनी पत्नी से कहा।

"ऎसे कैसे?"

"मंदिरों में घूमने से तो वक्त नहीं निकलता। मोहन ने पता नहीं क्या सोचकर मुझे दुकान से दूर किया है। उस बेवकूफ को कौन समझाए कि हमारे अनुभवों के आगे उसकी नई अक्कल पानी भरती है। सारी जिन्दगी की यही तो असली कमाई है मेरी, और उसने इसकी भी कद्र नहीं जानी।"

"नहीं जानी तो मत जानने दो। आप क्यों खुद का खुद जलते हो। मंदिर-देवरों में मन नहीं लगता तो घूम-फिर लिया करो। घर में सिनेटरी का पाखाना क्या हो गया आपको तो धोरे देखे भी युग बीत गया होगा।"

"तो तुम भी भला सीख देने लग गई?"

"अब इसे सीख समझो तो मेरे पास क्या उपाय है? मैंने तो आपके भले की बात कही है। जब से आपने काम छोड़ा, आपके चेहरे की उदासी मुझसे देखी नहीं जाती।"

"ठीक-ठीक..... में अभी जा रहा हूं धोरे.......।" कहकर मघजी मुस्कराते हुए पानी का लोटा लेकर धोरों की ओर चल पड़े। सर्दी के सूरज की तिरछी किरणें रेत की लहरों पर स्त्रेह के हाथ की तरह खिसकती जा रही थी। उन्होंने सोचा-समुद्र और रेत की लहरों में क्या फर्क है? यदि हवा हेत जताए तो दोनों खुश और यदि फंफेड़ने लग जाए तो तूफान का तांडव भी दोनों जगह एक सरीखा। इस धरती की काया में आप-अपना हिस्सा लिए रेत और पानी कितने मनमौजी, कितने आनंदित और कितने स्त्रेही जैसे दोनों को अपनी खूबसूरती का तनिक भी गुमान-गर्व नहीं है। अचानक उनको अपने पांव की अंगुलियों के पास सरसराहट महसूस हुई। नीचे देखा टीटण थी। उन्होंने उसे हाथ में पकड़कर खासा दूर फेंक दी पर वह तो थोड़ी देर में ही फिर उसी जगह आ पहुंची। मघजी ने तीन-चार बार उसे फेंकी पर वह असली टीटण थी-धोरों धरती का हठीला जीव। हम्मीर ने अपना हठ छोड़ा हो तो यह छोड़े। मघजी तंग आ गए और लोटे का पानी को गटागट पी टीटण को लोटे में छोड़ दिया। फिर उन्होंने टीटण को नजदीक से देखना शुरू कर दिया। अरे! इसका चेहरा-मोहरा तो भंवरे से मेल खाता है। भंवरा इतना चहेता जीव और बेचारी टीटण से कोई बात भी नहीं करता। मघजी ने सोचा यह भंवरा भिनकारे का गीत गाता तितलियों और फूलों के नजदीक जा पहुंचा और कवियों की नजरों में चढ़ गया। परन्तु बेचारी टीटण को कौन पूछे?मघजी के मन में टीटण के साथ हुए अन्याय की बात उठी और उनको लगा जैसे उनके मन में नए ज्ञान का प्रकाश हो गया हो। उन्होंने टीटण को लोटे से लेकर हथेली में रखी। अरे! यह छोटा सा मुंह तो रेल के दानवी इंजन सरीखा लगता है। इसी प्रकार काला-कलूटा और बेरूप, क्या पता किसी ने इस बात पर ध्यान दिया है कि नहीं। जाकर दुर्गा की मां को बताने से बहुत खुश होगी। उन्होंने टीटण को फिर लोटे में डाला और घर की तरफ रवाना हो गए।दुर्गा की मां माला फेर रही थी। मघजी को देखकर पूछा-"जा आए क्या?"

"एक बार माला छोड़, मेरे पास आ.......देख, मैं क्या लाया हूं-रेल का इंजन।"

"रेल का इंजन।" कहकर अचंभित करती हुई दुर्गा की मां उठी, "कहां है?"

मघजी ने दुर्गा की मां की हथेली पकड़कर उस पर लोटा उलटा दिया,"ध्यान से देख...."

"यह तो टीटण है.......।" इसका क्या चाव-दुर्गा की मां ने हथेली पलटते हुए कहा, हाथ में मूत दिया तो तीन दिन दुर्गन्ध नहीं जाएगी।"मघजी ने नीचे झुककर टीटण को अपनी हथेली पर रखा और उसे दुर्गा की मां के सामने करते हुए कहा, "अरी भागवान....एक बार इसे देख कर बता तो सही, यह कैसी लगती है?"

"कैसी क्या लगती है......बाहर फेंको इसे। बुढ़ापे में ये क्या तमाशा कर रहे हो, लोग हंसेंगे। कुछ तो सफेद बालों का कायदा रखो।"

"बस-बस, रहने दो। ज्यादा ज्ञान हो गया लगता है। सामने पड़ी चीज ही दिखाई देनी बन्द हो गई है। परन्तु गांव में समझदार लोग मरे नहीं है।" कहते-कहते मघजी ने टीटण फिर लोटे में डाली और तुरन्त बाहर निकल गए।सबसे पहले मुकना दिखाई दिया। मघजी ने उसको आवाज दी, "मुकना.........!""क्या काका....." पीछे देखते हुए मुकने ने पूछा।"ठहरो...देखो मेरे लोटे में क्या है!" पास आते ही उन्होंने लोटा मुकने के मुंह के आगे कर दिया।मुकने ने मंदे पड़ते उजाले में लोटे में झांककर देखा और बोला, "यह तो टीटण है, और क्या?"

"टीटण तो है, पर इसका मुंह कैसा है?"

"मुंह, इस बेचारी के कैसा मुंह, सपाट और गंदा।"

"रेल के इंजन जैसा नहीं लगता?" मघजी ने पूछा। मुकना मुस्कराया, "क्या बात है काका......? तबीयत तो ठीक है ना। कहीं भांग-गांजे की चपेट में नहीं आ गए?"

"जा-जा........कुछ देखना नहीं आया तो भांग-गांजे की बात करने लग गया। मैं तो तुम्हें दूसरों की तुलना में ठीक मान रहा था, तुम्हारे तो दिमाग में गोबर भरा है।" कहकर मघजी आगे चल पड़े। मुकने से मिलने के बाद मघजी कई देर तक गांव की गलियों में घूमे, परन्तु उनको किसी पर भी विश्वास नहीं हुआ। फिर कोई उलटा-पुलटा बोलेगा। मास्टर दीनदयाल को छोड़कर दूसरे किसी से बात करनी व्यर्थ है, पर मास्टर जी के घर बेवक्त नहीं जाऊंगा। यह सोचकर मघजी घर आ गए और सूरज ऊगने का इंतजार करने लगे। दिन ऊगा। मघजी ने स्नान वगैरह किया और स्कूल के समय से पहले मास्टर जी के घर जा पहुंचे। मास्टर जी खाट पर बैठे किसी किताब के पन्ने पलट रहे थे। घरवाली पशुओं की सार-सम्भाल करने गई थी।

"जय राम जी की....।" मघजी ने लोटे को हथेलियों के बीच लेकर रामा-सामा की। "आओ मघजी....। आज सूरज किधर से उगा है?" कहते हुए मास्टर दीनदयाल ने किताब एक तरफ रख दी।

"क्या बताऊं मास्टर जी........ " मघजी खाट पर बैठते हुए बोले, "गांव में कोई समझदार आदमी ही नहीं है।"

"क्यों, क्या बात हुई.....?"

"किसी को फुरसत ही नहीं है, कोई नई बात सोचने की, कहने की, समझने की। मैं तो कल से एक बात कहने के लिए घूम रहा हूं, पर कोई समझने के लिए तैयार नहीं है....।"

"ऎसी क्या बात है भला....?" मास्टरजी ने हंसकर पूछा। मघजी खुश होते हुए बोले "लोग फूल देखते है। तितलियों पर मोहित होते है, भंवरों के गीत गाते है, पर उनमे नई बात क्या है? केवल देखा-देखी। आप देखो इस टीटण का नया रूप, सबसे बढ़कर नहीं दिखे तो मुझे कहना।" कहकर मघजी ने लोटा मास्टर जी के सामने खाट पर उलटा दिया। एक हल्की सी "तड़" की आवाज के साथ अपने पंजे ऊंचे किए टीटण आ पड़ी। पड़ने के बाद उसके मुंह के "एरियल" और छहों पांव हवा से हाथापाई करते हुए तिरमिर हिल रहे थे। मास्टर जी को मानो करंट लग गया हो, वे उछलकर खड़े हो गए। इस अप्रत्याशित बात को समझने में उनको कुछ समय लगा, फिर गुस्से में बोले, "यह क्या तमाशा है, गांव में तो एक भी समझदार नहीं मिला पर आपकी अक्ल भी घास चरने गई लगती है। ज्ञान छांटने के लिए टीटण ही मिली, मैंने सोचा भले आदमी हो, सुबह-सुबह कोई काम की बात करने पधारे होंगे। अब आप घर पधारो........ नहीं तो लड़के पत्थर मारना शुरू कर देंगे।" मघजी को लगा कि वे पहाड़ के नीचे आ गए है। डगमगाते कदमों से वे कब मास्टरजी के घर से निकले और कब घर पहुंचे, उनको पता ही नहीं चला। घर पहुंचकर वे अपने ओरे में घुस गए। न कुछ कहा न ही सुना। किसी से बात तक नहीं की। उनको पता था कि उनका चेहरा अभी मोर से मिल रहा था, टप-टप आंसू टपकाते मोर से। अन्तत: दुर्गा की मां ने जाकर पूछा "क्या हुआ, आपके कहीं दर्द तो नहीं हो रहा?"

"दर्द है मेरे सिर में।" मघजी काटते हुए से बोले।

"स्याणों, ऎसे क्या बोल रहे हो?" दुर्गा की मां ने भी आंखे भर ली।

"मैं समझदार नहीं हूं, दुर्गा की मां....मैं पूरा डफोल, मूर्ख हूं।"मघजी की आंखे छलछला आई। उन्होंने अपनी धोती का पायचा आंखों पर रखकर सुबकना शुरू कर दिया। दुर्गा की मां बोलवा कर रही थी, "हे महाराज बालाजी, यह क्या हो गया बाबा, ऎसे सयाने-समझदार का दिमाग कैसे फिर गया। तुम्हारा जागरण बोलती हूं बाबा इनके आंसू पौंछ दो।" तभी कड़ी बजी। दुर्गा की मां ने पल्ले से आंसू पौंछते हुए मुख्य द्वार पर जाकर देखा, एक लड़का चमचमाता लोटा लिए खड़ा था। बोला, मास्टरजी ने यह लोटा पहुंचाया है। सुबह मघजी उनके घर छोड़ आए थे। मास्टर जी ने कहा है, टीटण नहीं मिली। मिलते ही पहुंचा देंगे। दुर्गा की मां ने झट से लड़के के हाथ से लोटा लिया और दरवाजा बन्द कर कुंडी लगा दी।


अनुवाद: मदन गोपाल लढ़ा

कोई टिप्पणी नहीं: