शिवचरण मंत्री का नाम राजस्थानी व हिंदी के साथ गुजराती साहित्य जगत में भी जाना-पहचाना है। मौन साधक शिवचरण मंत्री जी ने अनुवाद के माध्यम से भारतीय भाषाओं को परस्पर जोड़ने का स्तुत्य कार्य किया।
अजमेर के निकट श्रीनगर कस्बे में पिता श्री गोरधनदास मंत्री के आंगन में 28 अगस्त 1933 को जन्मे शिवचरण मंत्री बचपन से मेधावी विद्यार्थी थे। उस वक्त उच्च अध्ययन के लिए गिने चुने संस्थान हुआ करते थे मगर उनकी दृढ़ लगन व समर्पण के सामने हर चुनौती बौनी साबित हुई। उन्होंने अर्थशास्त्र व नागरिक शास्त्र विषयों में स्नातकोत्तर किया। शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत शिक्षक के रूप में की। शिक्षा विभाग में उन्होंने साढे तीन दशकों से अधिक लम्बी सेवाएं दी। शिक्षक के रूप में दायित्व निर्वहन करने के लिए उनको प्रदेश के अनेक संभागों में कार्य करने का अवसर मिला। एक मेहनती और कुशल शिक्षक के रूप में अपने विद्यार्थियों द्वारा वे आज भी याद किए जाते हैं। पदोन्नति प्राप्त करते हुए वे प्रधानाध्यापक, प्रधानाचार्य और फिर जिला शिक्षा अधिकारी के पद पर पहुंचे। प्रशासकीय दायित्व का निर्वहन करते हुए उन्होंने अपनी सहजता, ईमानदारी और परिश्रमी स्वभाव से सदैव अमित छाप छोड़ी। उनकी मान्यता थी कि समाज की तस्वीर शिक्षा के माध्यम से ही बदल सकती है। बालिका शिक्षा के लिए उन्होंने अनथक प्रयास किए। यह वह दौर था जब ग्रामीण क्षेत्रों में बालिकाओं को पढ़ने के लिए स्कूल भेजने में संकोच किया जाता था। मंत्री जी ने लोगों के घरों में जाकर उनको बेटियों को पढ़ाने के लिए प्रेरित किया। जिला शिक्षा अधिकारी के पद से 1991 में सेवानिवृत्ति के बाद से वे स्वतंत्र लेखन करने लगे। गत 30 अप्रेल 2020 को महाप्रयाण से पूर्व तक उनकी कलम अनवरत चलती रही।
शिक्षक के रूप में कार्य करते हुए शिवचरण जी की साहित्य में रुचि जगी और उन्होंने हिंदी व राजस्थानी में खूब किताबें पढ़ी। गुजराती भाषा के समृद्ध साहित्य की ख्याति सुनकर उनके मन में गुजराती सीखने की ललक जग गई। ताज्जुब की बात है कि उनका गुजरात से कोई वास्ता नहीं रहा है, न ही उन्होंने किसी स्कूल अथवा संस्थान से गुजराती भाषा की औपचारिक शिक्षा हासिल की। उनके साथ सेवारत एक अध्यापिका कभी मैट्रिक में गुजराती पढ़ चुकी थीं, जिसकी मदद लेकर उन्होंने गुजराती लिपि के अक्षर बांचना शुरू किया। फिर निरंतर प्रयास से उन्होंने गुजराती भाषा की बारीकियाँ सीख ली और शब्दकोश के माध्यम से अनुवाद में भी दक्ष हो गए। गुजराती का जुनून इस कदर उनके सर पर सवार हुआ कि उन्होंने न केवल गुजराती सीखी बल्कि गुजराती के श्रेष्ठ साहित्य का हिंदी और राजस्थानी में अनुवाद का महत्वपूर्ण कार्य भी किया। उनके द्वारा गुजराती के प्रेम जी पटेल, केशुभाई देसाई, गिरीश भट्ट, दिनकर जोशी, दौलत भट्ट, सुमंत रावल, हिमांशी शेलत जैसे चोटी के साहित्यकारों की रचनाओं का हिंदी व राजस्थानी में अनुवाद किया गया। अनुवाद कार्य उनके लिए असल में पुनर्लेखन ही रहा। उनके द्वारा अनूदित रचनाएं मूल से होड़ करती हैं। राजस्थानी व हिंदी में परस्पर अनुवाद में भी वे पारंगत थे। उन्होंने मेरे राजस्थानी कहानी संग्रह ‘‘च्यानण पख’’ का हिन्दी में अनुवाद किया। गुजराती से अनूदित दिनकर जोशी का निबंध संग्रह ’सोच-विचार’ एवं सांकल चंद पटेल का बाल कथा संग्रह ’सात पूंछडी को ऊंदरो’ तो खूब चर्चित हुए। उनके द्वारा लिखित ‘संस्कार सोपान’, ‘भारत के शिक्षा मंत्रीः मौलाना आजाद’ आदि को भी खूब सराहना मिली। अनुवाद विधा में उनकी दो दर्जन से अधिक कृतियां प्रकाशित हुई ।
अनुवाद के साथ में शिवचरण मंत्री ने मौलिक लेखन भी किया है। पुलिस विधि विज्ञान पर केंद्रित उनकी पुस्तक पुलिस के प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों में उपयोग में ली जाती है। इस पुस्तक के लिए शिवचरण मंत्री जी को वर्ष 1987 में भारत सरकार के तत्कालीन गृहमंत्री बूटा सिंह के द्वारा पंडित गोविंद बल्लभ पुरस्कार से नवाजा गया। हिंदी व राजस्थानी में उनकी सैकड़ों लघुकथाएं देश भर की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में छप चुकी हैं। शैक्षिक मुद्दों की उनको गहरी समझ थी। शिक्षा विमर्श से जुड़े हुए उनके दर्जनों आलेख शिविरा और अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। बच्चों से उनका सहज लगाव बाल साहित्य की रचनाओं के रूप में अभिव्यक्त हुआ है। देश की जानी-मानी पत्रिकाओं में उनकी नियमित रूप से उपस्थिति रही हैं। शिक्षक दिवस पर प्रदेश के शिक्षा विभाग द्वारा प्रकाशित संकलनों में उनकी सतत भागीदारी रही। उनके द्वारा रचित व अनूदित कई किताबें अप्रकाशित हैं जिनके प्रकाशन से उनके साहित्यिक अवदान का समुचित मूल्यांकन संभव हो पाएगा। देश भर के साहित्यकारों के साथ उनका पत्र व दूरभाष से आत्मीय संवाद रहा। सहज और सरल भाव के धनी शिवचरण मंत्री जी पद-पुरस्कार जैसे प्रपंचों से सदैव दूर रहे। राजकीय सेवा से निवृत्ति के बाद से वे अपने गांव श्रीनगर में रहकर साहित्यिक साधना कर रहे थे। मंत्री जी अपने अंतिम दिनों में भी साहित्य पठन और अनुवाद के काम में लगे हुए थे। साहित्य सृजन का कार्य उनके लिए स्वान्तः सुखाय था। निश्चय ही शिवचरण मंत्री के जाने से भाषाओं को परस्पर जोड़ने वाला सेतु ढह गया है।